Wednesday, June 27, 2007

फिर दिल्ली में


कुछ साल पहले की बात है (फिर दिल्ली में)
..एक कवि किसी सरकारी पत्रिका के संपादक हुआ करते थे... उससे पहले वे कहीं और थे किसी संस्था में.. वक्त बदला और वे संपादक हो गए.. पद के साथ उनका तेवर भी बदला,
..फिर एक अँग्रेजी के कवि जो उन्हें जानते थे उन्होंने खुलासा किया "... वे(संपादक जी) यह मानते हैं कि अगर वे किसी को ना छापें तो वह कवि नहीं है.. यानि वे (संपादक) इतने महत्वपूर्ण हैं.." पर अब वे संपादक नहीं हैं और उनका खुद का अता पता नहीं है...
फरवरी में जब मैं दिल्ली में था उस पत्रिका दफ्तर के सामने से गुजरते मुझे यह किस्सा ध्यान आया

मंडी हाउस के गोल चक्कर में सात रास्ते आकर मिलते हैं सात वहाँ से शुरू होते हैं और आजकल मैट्रो भी वहाँ से गुजरती है.


कुछ दिनों से नया ज्ञानोदय के युवा अंक को लेकर ईमेल आ रही हैं, अंक के विवाद में कुछ नाम परिचित लगते हैं कुछ अनजाने ... अंक उच्चायोग से मँगवाया, प्रतीक्षा में हूँ, इंटरनेट पर जुलाई का अंक है पुराने अंक नया ज्ञानोदय की साइट पर दिखे नहीं,
तो अंक पढ़ने के बाद शायद कुछ स्पष्ट हो कि चक्कर क्या.

बारिश रूक गई है पर पिछले तीन दिनों में खूब जमकर हुई थी, शाम को जब बगीचे में निकला तो पौधों के बीच कुछ चमकता दिखा, झुक कर देखा - बंदगोभी के एक पत्ते पर चमकती हुई एक बूँद पानी की बची हुई थी. एक दम स्थिर और खामोश...

Monday, June 25, 2007

कहाँ जुड़ते हैं ये तार
























"इस छोर पर " कविता संग्रह से एक कविता >>>>

बंदर का नाच

मैं मदारी हूँ बंदर भी एक साथ
सच एक ही मुखौटे में दो चेहरे हैं
छायाओं को मिटा दो
थोड़ा और पास आ के देखो
दोपहर के निर्जन अंतराल में
तमाशे की डुगडुगी गलियों में मंडराती,
करता हूँ मैं प्रतीक्षा
खिड़कियों के खुलने की
दरवाजों के बंद होने की
हवा के थमने की, किसी के बोल पड़ने की
उछलते कूदते अपनी रस्सी को पकड़े
टोपी को उछालते

अंधेरी सुरंग में नींद लंबी
कि रात का सफर कुछ नहीं बस
ठोस खंबों से टकराता समय

मनुष्यों का मरना बंद हो गया जैसे एकाएक
धरती अपने धुरी पर ठहरी सी और मैं
कानों पे हाथ लगाए चकित
अपनी अमरता पर
और यह दर्पण तो नश्वरता है,
अरे यह तो मैं
गोल गोल घूमता
बंदर और मदारी भी



1.6.2000


इस छोर पर ( कविता संग्रह)
प्रकाशन वर्ष - 2003
वाणी प्रकाशन , दिल्ली

Monday, June 04, 2007

गर्भ से बाहर
















काले रंग को पहचानना असंभव होता है
सब ओर जब अंधकार हो
पर अगर देख सकते हैं हम
और कहते उसे स्याह
कैसा है सोचकर
तो कोई स्रोत तो होगा ही उसे देखने के लिए

वे आँख नहीं
वह मन नहीं
फिर क्या
जो कर दे अपनी पुष्टि
कैसे करूँ प्रमाणित कि सहमति हो जाय हमारे बीच
अपने अपने अँधेरे पर

भाषा ने परिभाषित कर
सीमित कर दिया अनुभूति को
गर्भ से बाहर
हम अँधेरा देख सकते हैं
या रोशनी की जरूरत भ्रम है!
या बस जन्मजात आदत है

कुछ देखने के लिए कि
कुछ लिख दूँ अँधेरे में
स्याही से
जो पढ़ा जा सके रोशनी की दुनिया में





15मई07

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...