Friday, April 29, 2011

गिरगिट


कितने नाम बदले चलन के अनुसार रंगत भी

बोलचाल के लिए बदले रूपक बदलने के लिए तेवर

एक दो गालियाँ भी पर हर करवट बेचारगी के शब्दों से भरपूर,

यह ट्रिक हमेशा काम करती है बंधु

बिल्ली के गले में कागज की घंटी बाँध सोया हुआ हूँ सपनों में सलाहें देता,

आश्वासन के खाली लिफाफों को बाँटता

आशा का तराजू बट्टा किसी के बस्ते में डालता

बदलाव की पुकार लगाता दिशाओं को गुमराह करता

लुढ़कता वसंत की ढलानों पर मैं गिरता हुआ पतझर हूँ,

क्या मुझे याद रह पाएगा हर रंगत में हर संगत में

यह उधार का समय जो मेरी सांसो से जीता रहता है मेरा ही जीवन

रटते हुए अक्सर भूल जाता हूँ सच बोलना.

7.11.2008


© मोहन राणा

Thursday, April 07, 2011

कपड़ों से बाहर

शब्द उजास दलदल में
सहमे
हुए रास्तों की दिशा
मैं अपने कपड़ों से बाहर निकल जाना चाहता हूँ धूप का चश्मा लगा कर,
बंदर बाँट में बिल्लियाँ लड़ती रहती हैं
बंदर हँसता रहता है अपनी किस्मत पर
वह तो दरवेश सिफ़त है,
कचरे में पाई क्या वह सचुमच कविता ही थी
कि मैंने सुना था कुछ
उसे एक बार फिर मन में लिखते हुए,
वैसे सच क्या है
ना दिखे तो भ्रम
दिखे तो संशय होता है खुद पर ही,

हैडफोन डायोड और एंटेना
कानों में खामोश ध्वनि तरंगों में उपस्थित बोल पड़ी बीसवीं सदी


आशा ही है इस संशय का नाम
जिसे तमगे की तरह सीने से लगा रखा है
धरती भी नहीं चाहती यह बोझ उस पर गिरे.

© मोहन राणा

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...