Sunday, January 30, 2011

नमस्ते

कहाँ गुम हो या शायद मैं ही खोया हूँ
शहर के किस कोने में कहाँ
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है


दूरियाँ नहीं बिफरा मन भी नहीं
तुम्हें याद करने का कोई कारण नहीं
भूलने का एक बहाना है खराब मौसम जो
सिरदर्द की तरह
समय को खा जाता है खाये जा रहा है
फिर भी भूखा है जैसे आज भी,

या मैं खुद से पूछ रहा हूँ
समय को कच्चा खाते
मैं भूखा क्यों हूँ सिरदर्द की तरह
सोच सोचकर
लोहे के चने चबा रहा हूँ

अब मैं भूल भी गया
मैंने तुमसे पूछा क्या था
अपने ही सवाल का जवाब देते हुए,
दो पैरों बराबर जमीन पर
वो भी अपनी नहीं है


© मोहन राणा
30.1.2011

Tuesday, January 25, 2011

The Dust of Timas



The Dust of Timas
by: Sappho (c. 610-570 B.C.)
translated by Edwin Arlington Robinson



This dust was Timas; and they say
That almost on her wedding day
She found her bridal home to be
The dark house of Persephone.

And many maidens, knowing then
That she would not come back again,
Unbound their curls; and all in tears,
They cut them off with sharpened shears.

Thursday, January 13, 2011

लार्ड मैकाले का तंबू

मैं वर्नकुलर भाषा में कविता लिखता हूँ
आपको यह बात अजीब नहीं लगती
मैं कंपनी के देश में वर्नकुलर भाषा में कविता लिखता हूँ,

मतलब कागज पर नाम है देखें
मिटे हुए शब्दों में धुँधली हो चुकी आँखें
ढिबरी से रोशन गीली दोपहरों में,
कबीर कह चुके असलियत
माया महाठगनि हम जानी,
और मैं केवल अपने आप से बात कर सकता हूँ
पहले खुद को अनुसना करता हूँ


कोई नहीं संदर्भ के लिए रख लें इस बात को कहीं
आगे कभी जब दिखें लोग आँखें बंद किये
तो पार करा दीजियेगा उन्हें रास्ता कहीं कुछ लिख कर,
मैं खुद भी भूल गया था इसे कहें रख
कुछ और खोजते आज ही मुझे याद आया
मैं भाग रहा था अपने ही जवाबों के झूठ से
कहता मैं सच की तलाश में हूँ


मैंने अपने बगीचे में बाँध रखीं हैं घंटियाँ पेड़ों से
एकाएक मैं जाग उठता हूँ उनकी आवाजें रात में सुनकर
कहीं वे गुम ना हो जाएँ
मेरे वर्नकुलर शब्दों की तरह



©

Sunday, January 09, 2011

कविता वृत्त

जहाँ तक कविता की बात है मेरा मत है कि..

तितली तो नहीं मैं किसी को दे सकता हूँ, उसके पंखों की जादुई उड़ान का आभास ही शब्दों से देता हूँ. ताकि पढ़ने वाले के भीतर कोये में सोई तितली उस तरंग को महसूस कर जाग उठे.

Wednesday, January 05, 2011

शून्य का दशक

कितने चेहरे पहने
मैं उन्हें पहनता बदलता रहा अपने मतलब के लिए
तुम्हें सच से बचाने के बहाने
झूठ कहता रहा किसी कान में फुसफुसा कर ,
दस और साल बीत गए
बीत ही गया शून्य का दशक
हर कोशिका में खालीपन छोड़ पर,

तुम्हारी फेसबुक पर
मैंने साध रखी है अपनी उपस्थिति में पलायन की चुप्पी

©

Monday, January 03, 2011

खड़े होने की जगह

कुछ दृश्य मामूली से होते हैं पर वे दृश्यों से पटे मानस पटल के कोलाहल में अपने लिये खड़े होने की जगह बना ही लेते हैं.

कुछ समय पहले एक दृश्य मैंने दिसंबर की सर्द के शाम हौजखास में एक अँधेरी सड़क पर देखा, गीला कुंहासा पास के जंगल से निकल सब ओर अँधेरे में फैल रहा था.
केवल गाड़ियों के हैडलैम्प या किसी भागते ऑटो की मुंदी बत्ती में पता चलता था कि मैं सड़क पर हूँ , और पाँव चल रहे हैं. फुटपाथ जैसी कोई चीज़ नहीं थी बस घने अँधेरे के किनारे थे दोनों ओर सड़क के बीच चलता मैं जल्दी जल्दी वहाँ से आगे बढ़ रहा .. तभी एक मंद रोशनी में मैंने कुछ लोगों के एक समूह को कुछ दूर से एक घेरा लगाए देखा, मुझे अचरज हुआ कि इस अँधेरे में वहाँ वे क्यों खड़े हैं!
पास आया तो देखा लैम्प की रोशनी के इर्दगिर्द वे लोग एक खोमचे को घेरे खड़े थे, बिल्कुल स्थिर चुपचाप कुछ खाते हुए और उनके परे एक आदमी हाथ चला रहा था शायद रोटियाँ बेल रहा था और ढेकची से कुछ करछी से निकल कर किसी प्लेट पर डाल देता.. शाम का भोजन चल रहा था.

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...