Thursday, October 15, 2009

याद करते तुम्हें


कितने दिन बाद मिले

यही याद है

बीते कितने दिन इस बीच


बेलें फैली सूखी दीवारों पर

बारिश में बह गईँ

छोड़ कर निशान

तस्वीरें भी पुरानी हो गईं

एकतरफा पहचानते पहचानते

पर सपनों में तुम हमेशा मिली
बीते वहाँ कई दिन

रोशनी और अँधेरा

खुशी की सलवटें


तुम्हारी आवाज वही है

पुकारो तो जरा मेरा नाम

मैं मुड़ कर पहचानना चाहता हूँ

एक अजनबी को बाजार में,

झिझकर माफी माँगता हूँ फिर से


बीते कितने दिन अटैची की तहों में

अतीत को देखूँ तो लगता

अभी तो पहला ही दिन शुरू हुआ

बीतते भविष्य के विस्तार में

हाथों में उछालते कैच करते

गेंद को फेंक देता हूँ उसके भीतर,


याद करते तुम्हें

मैं एक खोई गेंद को खोज रहा हूँ इस ऊँची घास के मैदान में.



Thursday, October 08, 2009

काबुलीवाला कहता है

मौसम तो जैसा है ठीक ही है
गरमी हो या सर्दी पतझर हो या बरसात
अगर में जग जाऊँ तो अच्छा है
पता नहीं पर दिल्ली में सब सो रहे हैं
यह कैसा अनाम मौसम,

पता नहीं वे किसके पैर हैं
जिन्हें दिखता नहीं
कहते हैं अमरीका के पाँव दबाए जा रहे हैं
दिल्ली में सब सो रहे हैं
किसकी यह नींद किसका यह सपना
सोचता काबुलीवाला
जागकर किसी को बताऊँ जो हैरान ना हो,
उनींदे में पुकारता जागते जागते रहो

Sunday, October 04, 2009

क्या सूरज हमारी स्मृतियों का लाइब्रेरियन है?


सुबह का सूरज
कहीं छोड़ कर आया दोपहर
कहीं खोल आया दरवाजा वह शाम के लिए
चमकता
आकाश ने ली जैसे एक लंबी सांस
दिन खुला
मेरी बंद आँखों के भीतर
मैं जनमा फिर कल आज कल के दर्पण में


© मोहन राणा

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...