भीगती शाम ठिठुरती सर्द पानी में
दरवाजे के बाहर ही है अब नया साल
समय को बाँचता दस्तक देने से पहले
कुछ छुट्टे पैसे ही बचे हैं उसकी जेब में
ये कुछ दिन,
जिनमें ना आशा है ना उदासी
वे ना जिंदा हैं ना अचेत
बस एक बेचैन धड़कन
अगर मैं उन्हें चूम लूँ
तो एक ही डर
कहीं बंध ना हो जाऊँ समय के अविरल प्रवाह में
कहीं भूल ना जाऊँ अपना नाम
कैसे पहचानूँगा फिर तुम्हें!
अभिशप्त जैसे ये क्षण निरंतर आर्तनाद में डूबे
मैं कानों को बंद करता हूँ
पर खुली रह जाती हैं आँखें
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© मोहन राणा
Tuesday, December 29, 2009
Monday, December 14, 2009
गोपन कथा
हमारी जिंदगी ऐसी गोपन कथा सी है हमें सब मालूम
फिर भी खोजते रहते हैं हम संकेतों को उस जिंदगी को जीते हुए
उसे पहेली मान लगे रहते हैं बूझते
पेड़ों से अदृश्य जंगलों में लुढ़कती हुई नींद की ढलानों पर
संभालते अपने आपको
बटोरते अपनी नग्नता को पतझर के बियाबान में
उकेरते अपनी जिंदगी की त्वचा पर संकेत
ये जानकर कि इस गोपन कथा में विस्मृति अपरिहार्य स्थिति है
कि शायद उसके बाद कुछ बची रहे चेतन स्मृति
कि बूझ सकें उन संकेतों को जो हमने लिखे थे भविष्य के लिए,
जिन्हें पढ़ रहें हैं हम आज, उस नन्ही लौ के सहारे समय के अंधकार में
© मोहन राणा
फिर भी खोजते रहते हैं हम संकेतों को उस जिंदगी को जीते हुए
उसे पहेली मान लगे रहते हैं बूझते
पेड़ों से अदृश्य जंगलों में लुढ़कती हुई नींद की ढलानों पर
संभालते अपने आपको
बटोरते अपनी नग्नता को पतझर के बियाबान में
उकेरते अपनी जिंदगी की त्वचा पर संकेत
ये जानकर कि इस गोपन कथा में विस्मृति अपरिहार्य स्थिति है
कि शायद उसके बाद कुछ बची रहे चेतन स्मृति
कि बूझ सकें उन संकेतों को जो हमने लिखे थे भविष्य के लिए,
जिन्हें पढ़ रहें हैं हम आज, उस नन्ही लौ के सहारे समय के अंधकार में
© मोहन राणा
Wednesday, December 09, 2009
Tuesday, December 08, 2009
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Living in Language
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