Thursday, September 10, 2009

मरीचिका

गहराती शाम की तंद्रा टूटती
किलकारी लेती अबाबील लगाती गोता छत की मुंडेर में,
छापा जाता है पैसे को मशीनों से
कागज पर लिखा मूल्य तय करता है
सड़क पर अस्मिता
तय करता है आवश्यकता,

महत्व केवल मूल्य के विचार भर से ही
और सच्चाई जैसे कोई स्मृति!
रेत और पानी में छुपी है समुंदर की सीत्कार
खुली आँखों से देखता यह सपना

प्यास परछाईँ की तरह साथ बैठी है
दीवार पर चस्पा जंगल उधड़ जाएगा
छूट जाएगी गोंद नकली वालपेपर की,
कभी हुआ करती थी उस दीवार में
खिड़की की तस्वीर


24.6.09 ©

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...