Tuesday, November 21, 2006

पुर्नपाठ


जानना


रात में पार करता छतें
छाया की तरह वह पक्षी

उत्तर के तारा समूह में
चमकता वह तारा
किताबों में नहीं हैं सब नाम,
आना जाना!

पहाड़ों में चलते
यह जाना



( कविता संग्रह "जगह" से पृष्ठ 39, जयश्री प्रकाशन,1994)

© मोहन राणा

Sunday, November 19, 2006

मध्यावकाश



एकाएक शरद का रूप
प्रकट होता
सुर्ख पीला और गीला
गिरे गलते पतझर पर संभल कर पैर रखता
उतरता ढलान पर
बढ़ता शहर को
पास आता कोलाहल खो कर अपना मंतव्य
केवल शोर.. हर भाषा में शोर
सुनते थोड़ा ध्यान से एक एक कदम

मैं गिर कर नहीं देखना चाहता आकाश को,
बस मन है अभी धरती पर चलने का
बिना भय के
बिना किसी आशंका के
बिना अनजाने आंतक को छुए,
बस देखना मोहक शरद को
समेटते वसंत की स्मृति को धौंकते रंगों के साथ,
लेते एक लंबी सांस.

कि तभी मोबाइल बजने लगा

कहाँ हैं ? कोई प्रश्न

जी सड़क पर हूँ! एक जवाब

हँसता फिर एक और सवाल
क्या घर से बाहर कर दिया?

नहीं घर से तो बाहर हूँ
पहले ही !
फिर वही हँसी पर कोई और प्रश्न नहीं विदेश में!
बस एक बात
क्या कुछ छूट तो नहीं गया इस मध्यावकाश में
- पत्तों की खड़खड़ाहट अकेली
कोई पहचान पुरानी



17.11.06 © मोहन राणा

Saturday, November 18, 2006

नवंबर- दो हजार छह


एक वसंत था कभी
पतझर अब,
लौटेगा फिर कभी




18.11.06

©

Monday, November 13, 2006

लंदन में एक शाम हिन्दी

बुधवार 8 नवंबर 2006 नेहरू केंद्र लंदन में हिन्दी के भविष्य पर चर्चा ...कुछ प्रस्ताव ...deja vu

क्या दुनिया हिन्दी बोलना सुनना चाहती है? या यह बस हमारे मन में चल रही ही किसी बंदर की बतियाहट है!

और हाँ

विदेश राज्य मंत्री श्री आनंद शर्मा भी वहाँ आए



रायपुर से आए साहित्यकारों के साथ




सृजनगाथा के संपादक जयप्रकाश मानस भी आए थे उन्होंने एक विशेष संग्रह - ब्रिटेन में हिन्दी कविता http://www.srijangatha.com/november/pravashiank.nov06.htm पर संपादित किया है.




वहाँ कुछ अपरिचित भी मिले और परिचित हो गए.

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...