Monday, April 16, 2007

अंकुर


अभी सब एक जैसे लगते हैं नन्हे् अंकुर, पर कुछ दिन में सब के अपने अलग रंग हो जाएँगे , बनेंगे आकार और होगा अपना ही स्वाद... एक ही ट्रे में पालक भी है और इमली का भी अंकुर!

शुरू शुरू में सब एक साथ...
होता है ना ऐसा ही !
सुना किसी को कहते और छुपते

Tuesday, April 10, 2007

बगीचे में



आजकल दो तरह की चिड़ियाँ बगीचे में वयस्त हैं, इस पेड़ से दूसरे पर उड़ती हर समय सतर्क... बोलती
और सुनती हर आहट को, देखती हर छाया को...







Bluetit<<<>


Robin<<<>>>

Monday, April 09, 2007

पुरानी तस्वीर


दिल्ली में मुझे अपने "पुरा कोष" डिब्बे में कैप्टन प्रभात अग्रवाल की तस्वीर मिली , फरवरी 1986 - देहरादून , भारतीय सैन्य अकादमी.. मैं प्रभात से मिलने के लिए मसूरी जाते हुए एक दिन के लिए देहरादून रूक गया.
मसूरी में बर्फ गिरी हुई थी , दून घाटी से मसूरी की बर्फ से ढँकी ऊँचाईयाँ दिखाई दे रही थी.
और एक बार फिर कई बरस बाद कैप्टन प्रभात की चिठ्ठी पढ़ी , ....अभी उस चिठ्ठी का जवाब देना है - पर वह कहाँ है अब ...

Capt Prabhat Agarwal >>Feb 1986 >> Indian Military Academy


Sunday, April 08, 2007

टिप्पणी

"पत्थर हो जाएगी नदी" पर एक छोटी टिप्पणी "अमर उजाला " में कुछ दिन पहले छपी, यह पाँचवाँ संग्रह है पर समीक्षक इसे चौथा बता रहा है?! ....क्या यह गिनती का सवाल है ?
तथापि उन्हें किताब अच्छी लगी ऐसा प्रतीत होता है.

http://www.amarujala.com/Aakhar/detail.asp?section_id=11&id=327

Thursday, April 05, 2007

स्पाइस जेट




खिड़की पर अपना चेहरा सटा कर मैंने कुछ पहचानने की कोशिश की.... 30 हजार फीट से भी भला कोई पहचान हो सकती है, आकाश फिर भी उतना ही दूर लगता है जितना पैदल चलते कोलाहल से और बादल अलौकिक! हवाई जहाज शायद मध्यप्रदेश के ऊपर होगा, मैंने सोचा . चमकती हुई रोशनी में कुछ बादल नीले आकाश पर बिखरे और नीचे मध्य भारत का धुंधला भूगोल. पीछे वाली कुर्सियों पर लगभग हर कोई सो चुका था, आगे वाली कुर्सी पर दो बच्चे ऊधम में लगे थे . बच्चों के माँ- बाप आपस में अंग्रेजी में संवाद कर रहे थे बीच बीच में वे बच्चों को र्निदेश देते - फिर अपने साथ यात्रा कर रही बच्चों की आया से हिन्दी में कुछ कहते... मैं सोचने लगा मालिक- नौकर की भाषाएँ अलग -अलग हैं !?

भारत में हिन्दी किसकी भाषा है या नहीं है ?


बादल कुछ देर तक जैसे साथ उड़ते रहे. मैं बेंगलौर के बारे में सोचने लगा जहाँ मैं पहली बार जा रहा था.

Sunday, April 01, 2007

सीटी


कल बगीचे में रसभरी के पौधे लगाने के लिए खुदाई कर रहा था कि एक पुरानी सीटी मिट्टी में दबी मिली. जाने कब से यह पड़ी होगी मैंने सोचा ,

दबी हुई सुनती धरती की धड़कन, चुपचाप.
सुबह शाम बीते कई मौसम कि बरस कई,
गया इतना कि नहीं उसकी स्मृति कहीं,
पर सीटी तो चेतावनी देने के लिए होती है..







© मोहन राणा 1.4.07

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...