है एक उड़ान इस आहवान में,
सबके साथ नहीं होता यह
जो खुली रह जाएं आखें झुकी पलकों में,
इस तेज आंधी में नहीं दिखता
शब्दों की ढलानों पर
असभ्य हुक्मशाहों के विरूद्द कोई बोलता
न किसी के जलसे में ना किसी परचम नीचे
ना पंडाल में ना किसी सेमिनार ना किसी फोरम पोस्ट में,
मोहल्ले में चुप्पी कविता के जनपद में कवियों की अनुपस्थिति
कुछ दिन ही हुए हैं बार बार लौटते इस ख्याल में
पर ऐसे ही बीत गए हैं चौंसठ बरस जुड़ते जुड़ते
कोई फुसफुसाता है धीमे से, सच भी दगाबाज निकल आता है कभी.
सपने खुद ही लेते हैं सांस
इस बरगद की छांव में
©
Tuesday, August 23, 2011
Saturday, August 06, 2011
खरगोश
इस अँधेरे में हम सुनते अपनी साँस
पर थोड़ी देर में वह भी बंद हो जाती सुनाई देना,
सुनते हैं अपनी धमनियों में रिसती पीड़ाएँ
पर थोड़ी देर में वे भी रुक जातीं रिसना
और अँधेरा मिट्टी और हम एक हो जाते
2002
© मोहन राणा
पर थोड़ी देर में वह भी बंद हो जाती सुनाई देना,
सुनते हैं अपनी धमनियों में रिसती पीड़ाएँ
पर थोड़ी देर में वे भी रुक जातीं रिसना
और अँधेरा मिट्टी और हम एक हो जाते
2002
© मोहन राणा
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