Sunday, March 30, 2008

कुछ खटकता तो है


लैटिन में एक वाक्याशं है cui bono "किसका हितलाभ" चाहे तिब्बत का मामला हो या विश्वव्यापी हो या घर पड़ोस का
यह वाक्याशं कोई संकेत तो देता ही है, जब हम उसके कारण को खोजने की कोशिश फुरसत के समय कर रहे होते हैं ....जैसे ब्लाग लिखते हुए. चार एक अखबारों और गूगल को खंगालने के बाद भी.. कुछ खटकता तो है,


दलाई लामा कहते हैं , ल्हासा के उपद्रव में चीनी हाथ है.... पर मीडिया में झाडियों की ओर उन्मुख होकर बचाओ बचाओ का शोर क्यों हो रहा है,
एक तरफ धरती को बचाने की गुहार लगी है दूसरी ओर इन्हीं गुहार लगाने वालों के आसपास ऐसे भी लोग हैं जो अपने धन और विज्ञान का प्रयोग मनुष्य जाति की छँटाई में करते हैं... कुछ कुछ पेड़ पर बैठ कर पेड़ को ही गिराने वाली बात चल रही है पश्चिमी समाजों में.

Tuesday, March 25, 2008

डर किसे है









डर
किसे है


तिब्बत के पठार से उड़ी हवा
कि ये कौन लोग हैं जो भागते हैं
बचाने अपनी चौपालों को किसी संभावित दावानल से
दुनिया की राजधानियों में,
डर किसे है
इस चिंगारी से,
गायब हैं गलियारों में हुंकारने वाले मुखौटे
गायब उनकी परछाईयाँ भी
तितर बितर है धूप नई नई आती हुई गरमियों की,
अब कौन करेगा पूरी
बड़ी कविता के सपने को साकार,
लिखेगा आत्म शोक का विलाप
लुकते छुपते
उँची आवाज में कुछ कमजोर शब्द,

दुनिया की छत में जली एक चिंगारी
डर किसे है
अपनी ही स्मृति से!

25.3.08

©mohan rana

Sunday, March 16, 2008

तिब्बत का भय




चिंगारी फूटते ही पूरे तिब्बत में आंदोलन भड़क गया है, पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस पर अपना स्पष्ट मत रखने में हिचकिचाहट क्यों हो रही है क्या इसमें उसे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. लगभग बीस बरस पहले भी ल्हासा में विरोध की लहर उठी थी पर जबरन दबा दी गई, पर इस बार दबाना कठिन होगा, बिल्ली के लिए भी
और चूहों के लिए भी.. ..हो सकता है इस चिंगारी से जाने कितनी मशालें आगे जलें, परिवर्तन का समय आ गया है.

चीनी दबाव दिल्ली पर इतना है कि राजधानी के गलियारों में मंडराने वाले शेरों की बोलती बंद है,
खबरों के मुताबिक चीन बिना वर्दी वाले सैनिकों को नेपाल की सीमा के भीतर तैनात कर चुका है



Wednesday, March 12, 2008

वसुधैव कुटुम्बकम्

पृथ्वी के अलावा कोई और घर मनुष्यों के लिए अभी नहीं है, खोज चल रही है पर किसी और घर की संभावनाएँ कई प्रकाशवर्षों की दूरियों पर हैं.
जलवायु परिवर्तन का अभिघात आरंभ हो चुका है.. हालाँकि जलवायु परिवर्तन से जुड़े पारित प्रस्तावों की स्याही अभी सूखी भी नहीं .. मेरे तेरे की बहसों में समय बीत रहा है

अयं निजो परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥

Friday, March 07, 2008

दुविधा


बाकी हैं निशान पिछले पतझर के
वसंत आने को है कैलेंडर के अनुसार,
पेड़ की जड़ों की ओर देखता
किस मौसम की बात कर रहा हूँ?

© मोहन राणा

Wednesday, March 05, 2008

अतिरिक्त की पहचान




दृश्य बनती हुई तस्वीर में है या बन रहा है उसे जीते हुए,
वह
दृश्य पहचाना जा सकता है उसके लिए भाषा उपलब्ध है, पर कहीं यह पहचान की अवस्थिति आँखों पर पड़ी पट्टी तो नहीं है जो उसी दृश्य में उपस्थित "अतिरिक्त" को छान कर अलग कर देती है



©मोहन राणा

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...