Saturday, December 16, 2006

जलवायु

दिसंबर के मध्य में ठंड अनुपस्थित है - जलवायु में परिवर्तन हो रहा है, बाहर नीलक के पेड़ में कोंपले निकल रही हैं,
वसंत 4 महीने पहले आ गया !???


कुछ हो रहा है -
या जो होने वाला है उसका संकेत

आवरण

कुछ दिन पहले मैंने कहानीकार -कवि उदयप्रकाश को अपने नए संग्रह की सूचना दी उनसे तुरंत एक ईमेल मिला जिसके साथ एक चित्र भी संलग्न था, उन्होंने संग्रह के आवरण का एक नया आईडिया डेवलप किया -

Tuesday, November 21, 2006

पुर्नपाठ


जानना


रात में पार करता छतें
छाया की तरह वह पक्षी

उत्तर के तारा समूह में
चमकता वह तारा
किताबों में नहीं हैं सब नाम,
आना जाना!

पहाड़ों में चलते
यह जाना



( कविता संग्रह "जगह" से पृष्ठ 39, जयश्री प्रकाशन,1994)

© मोहन राणा

Sunday, November 19, 2006

मध्यावकाश



एकाएक शरद का रूप
प्रकट होता
सुर्ख पीला और गीला
गिरे गलते पतझर पर संभल कर पैर रखता
उतरता ढलान पर
बढ़ता शहर को
पास आता कोलाहल खो कर अपना मंतव्य
केवल शोर.. हर भाषा में शोर
सुनते थोड़ा ध्यान से एक एक कदम

मैं गिर कर नहीं देखना चाहता आकाश को,
बस मन है अभी धरती पर चलने का
बिना भय के
बिना किसी आशंका के
बिना अनजाने आंतक को छुए,
बस देखना मोहक शरद को
समेटते वसंत की स्मृति को धौंकते रंगों के साथ,
लेते एक लंबी सांस.

कि तभी मोबाइल बजने लगा

कहाँ हैं ? कोई प्रश्न

जी सड़क पर हूँ! एक जवाब

हँसता फिर एक और सवाल
क्या घर से बाहर कर दिया?

नहीं घर से तो बाहर हूँ
पहले ही !
फिर वही हँसी पर कोई और प्रश्न नहीं विदेश में!
बस एक बात
क्या कुछ छूट तो नहीं गया इस मध्यावकाश में
- पत्तों की खड़खड़ाहट अकेली
कोई पहचान पुरानी



17.11.06 © मोहन राणा

Saturday, November 18, 2006

नवंबर- दो हजार छह


एक वसंत था कभी
पतझर अब,
लौटेगा फिर कभी




18.11.06

©

Monday, November 13, 2006

लंदन में एक शाम हिन्दी

बुधवार 8 नवंबर 2006 नेहरू केंद्र लंदन में हिन्दी के भविष्य पर चर्चा ...कुछ प्रस्ताव ...deja vu

क्या दुनिया हिन्दी बोलना सुनना चाहती है? या यह बस हमारे मन में चल रही ही किसी बंदर की बतियाहट है!

और हाँ

विदेश राज्य मंत्री श्री आनंद शर्मा भी वहाँ आए



रायपुर से आए साहित्यकारों के साथ




सृजनगाथा के संपादक जयप्रकाश मानस भी आए थे उन्होंने एक विशेष संग्रह - ब्रिटेन में हिन्दी कविता http://www.srijangatha.com/november/pravashiank.nov06.htm पर संपादित किया है.




वहाँ कुछ अपरिचित भी मिले और परिचित हो गए.

Friday, October 27, 2006

क्या होता!


बस चलते चलते आता है,
यही मन में
क्या होता!
सवाल अगर आप न करते

या यह भी समय का किया है
पहले से ही तय

मैंने पानी से लिखा उन्हें
वे बादलों में बदल गए

कहीं दूर की यात्रा पे,

सारा आकाश उनका
सारी धरती उनकी


किसी ने देखा सपना
और मैं कहता उसे अपना जीवन




27.10.06 © मोहन राणा

Thursday, October 26, 2006

कला दीर्घा की छत और तीसरा आदमी

कल कई मूड एक साथ चल रहे थे और बाहर बारिश, कागजों में कुछ खोजते बीनते एक अप्रकाशित कविता मिल गई और सारा कोलाहल गायब हो गया

कला दीर्घा की छत और तीसरा आदमी

थोड़ी ठंड है यहाँ जनवरी का महीना पर शांत है यह जगह
आओ अंधेरे आकाश को पंखी की तरह ओढ़ लें
कोहरे के सहारे हम चल पड़ें
कुछ देर दो बात ही कर लें समय के तंग रास्ते पर,
बिल्कुल उधर कोने में बांस की परछत्ती सी है मेरी
कुटिया घर की छत पर, उसने अचरज की सांस सी
अनायास दिख जाती हैं ऐसे ही मिलती जुलती चीजें और लोग कभी
सब कुछ मिलता जुलता ही होता है - थोड़ा हेर फेर होता होता है देखने में,

पर हमने कहा नहीं कुछ बना सुने कुछ
कोई तीसरा जो उपस्थित नहीं था कहता रहा अपने जीवन की -
घर के ऊपर घर से अलग वही एक जगह
घर से जुड़ी - मैं लिख रहा हूँ किताब वहाँ, उसने कहा
दिन भर मैं खोजता बीनता उन्हें - उन परित्यक्त शब्दों को जीवन में,
परछत्ती पर जमा होते
मैं रहता हूँ परित्यक्त शब्दों में - परित्यक्त शब्द
बिना तारों का आकाश उनमें, कई मौसम, वे मेरी और तुम्हारी तरह हैं
उनका न पता -ठिकाना, उनकी क्या उर्म है, उनका बस पहचान है , वे इश्तहार में - खोए
चेहरे से हैं.

कभी लगता है जैसे मेरी देह
हवा से भरी हो - वायुमंडल
और मैं दोनों हाथों से बादलों को उसमें ठूंसता हूँ
जैसे तकिये में रूई को...
जैसे कोई सपना हो यह तीसरा आदमी
याद नहीं आती जिसकी कोई पहचान,

मैं एक बूढ़े आदमी को सुन रहा हूँ
कला दीर्घा की छत पर
सीले हुए अँधरे में
केवल देख रहा हूँ अपने को थोड़ी देर पहले.





29.1.97

© मोहन राणा

Sunday, October 08, 2006

पत्थर हो जाएगी नदी



















अकेले नहीं होंगे तो फिर किस के साथ होंगे

Monday, September 04, 2006

कल फिर कल


मैं सोया सुबह के लिए

जागा इस पल के लिए,

कुछ लिखा जीवन के लिए

ली एक लंबी सांस

छुआ दूर के दृश्य को

एक बादल रुका धूप घड़ी को देख

क्या

दिन था

या

बीच रात

कल फिर कल

देखा पुरखों के सपने को

वे सोए

और मैं जागा उस नींद में




4.9.2006 © मोहन राणा

Wednesday, August 30, 2006

कुछ पाने की चिंता

अपने ही विचारों में उलझता
यहाँ वहाँ
क्या तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ कभी,
जो अब याद नहीं

बात किसी अच्छे मूड से हुई थी
कि लगा कोई पंक्ति पूरी होगी
पर्ची के पीछे
उस पल सांस ताजी लगी
और दुनिया नयी,
यह सोचा
और साथ हो गई कुछ पाने की चिंता

मैं धकेलता रहा वह और पास आती गई,
अच्छा विचार मुझे अपने आप से भी नहीं बचा सकता,
उसे खोना चाहता हूँ
नहीं जीना चाहता किसी और का अधूरा सपना



30.8.06 © मोहन राणा

Sunday, August 13, 2006

अस्मिता

क्या मैं हूँ वह नहीं

जो याद नहीं अब,

जो है वह किसी और की स्मृति नहीं क्या

जिनसे जानता पहचानता अपने आपको

मनुष्य ही नहीं पेड़- पंछी

हवा आकाश

मौन धरती

घर खिड़की

एक कविता का निश्वास !


पर ये नहीं किसी और की स्म़ृति क्या ?

जो याद है बस

भूलकर कुछ


13.8.06 © मोहन राणा


Tuesday, July 25, 2006

सूरजमुखी का अँधेरा


दोपहर की चटख धूप में उसके सामने खड़ा मैं कुछ देर तक उसे घूरता रहा पहले कुछ आश्चर्य से फिर जिज्ञासा से, फिर एक प्रश्न के साथ -
इतने उजाले के बावजूद भी, यह अँधेरा कैसे ?
उसके बाद जैसे अपने ही मूड से संपर्क कुछ देर के लिए टूट गया.

©26/7/06

Tuesday, July 11, 2006

किनारा



बहुत दूर तैरती नाव

कोई जहाज

कुछ बहुत दूर तैरता लहरों के पार

आती जो पास मुझे लपकने हर उफान में

जैसे कोई निराशा

लौट जाता समुंदर हार कर किसी और छोर को

दोपहर बाद,

हर दिन मैं ताकता उस बहुत दूर को

देखता जैसे अपने आप को बहुत दूर से

और पहचान नहीं पाता


7.4.2002 सज़िम्ब्रा, पुर्तगाल

Friday, June 09, 2006

नाम और अन्य कविताएँ

इधर एक इंटरनेट पत्रिका museindia में http://www.museindia.com/cissue7.asp कुछ कविताओँ http://www.museindia.com/showcon.asp?id=236 के अनुवाद छपे हैं.

..इस साल जनवरी में जैसलमेर से दिल्ली लौटते हुए हम जोधपुर में दो दिन रूक गए .. शहर की गलियों में भटकते हम मसाला बाजार में पहुँच गए

Tuesday, June 06, 2006

छह जून

आज लगातार धूप का चौथा दिन है, बस बीच में एक दिन थोड़ी बूँदाबांदी हुई शायद कोई भटका हुई मेघदूत अपना संदेश छोड़ गया
पानी की बूँदों को वनस्पतियाँ ही शायद ठीक से पढ़ पाती हैं,
जब से यह दिन यानि 6 जून शुरू हुआ कि रेडियो पर 6.6.6 यानि 666 The Number of the Beast की अटकलें चल पड़ी है http://www.aloha.net/~mikesch/666.htm
पिछले महीने कतार में दुनिया का सबसे महँगा मोबाइल टेलिफोन नंबर 666 6666 £1.5 मिलियन पाउंड का बिका,

..पर कुछ घंटों में 6 जून भी चला जाएगा. मनुष्यों द्वारा बनाए कैलेंडर में एक दिन- एक और दिन

..अफ्रीका में सरदियाँ बिता कर अबाबील http://www.rspb.org.uk/birds/guide/s/swallow/index.asp गरमियाँ बिताने यहाँ पहुँच गई हैं दिन भर वे कहीं चली जाती हैं शाम होते वे लौट आती हैं .. अँधियाते आकाश में तेजी से उड़ती, बल खाती ,चकराती तीखी आवाज में बोलती ..उन्होंने छत में कहीं स्लेटों के बीच
अपने लिए जगह बना ली है पिछले साल की तरह..

पुनश्च : शाम होते होते पता चला कि आज ब्रिटेन के सबसे वृद्ध हेनरी ऑलिंघम का जन्मदिन है उनकी आयु 110 साल है, http://www.guardian.co.uk/military/story/0,,1791596,00.html

पर दुनिया का सबसे वृद्ध (युवा) व्यक्ति बेनीतो र्मातिनेज़ क्यूबा में रहता है http://en.wikipedia.org/wiki/Benito_Martinez

शाम के 9.30 होने को हैं और चिडि़याँ अभी भी बोल रही हैं , रात देर से आती है आजकल

Saturday, May 20, 2006

श्यामा






काली चिड़िया बोलती रहती है पेड़ की चोटी पर बैठी, आकाश बदलता रहता है अपना आवरण,

Saturday, April 29, 2006

आविष्कार

तपती गलती उकेरी हुई धरती,सूखती ,दलदल कहीं रेत के ववंडर झेलती,
करती प्रतीक्षा उसके उदूघाटन का, तय करती कविता अपना जनम खुद ही

Thursday, April 27, 2006

गिरगिट

हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बार
देखते एक दूसरे को
जानते हुए भी कि पहचान पुरानी है,
करते इशारा एक दिशा को
वह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है!
वह गर्मियों का भी नहीं लगता,
आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएं
पर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटा
अनुपस्थित है चिड़ियाँ
कातर आवाजे वहाँ ...
कैसे मैं जाउँ वहाँ कविताएँ सुनने, हम
रुकते हैं पलक झपकाते
झेंपते
जैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलते
कोई जगह
बदलते कोई रंग
कोई चेहरा




27 अप्रैल 2006 ©

Saturday, April 22, 2006

डाकिया

हम जो सोचते हैं वास्तविकता कुछ और होती है.
अनुभव ही सब कुछ है, प्रश्न भी वही उत्तर भी,
देव वही दानव वही ,चेतना और पदार्थ भी, अर्थ और अर्थहीन दोनों वही, बस अनुभव
नींद और जागने का. दरवाजे पर डाकिया घंटी बजाता है सुबह सुबह,
मुस्कराता है - मुझे नींद में चलता देख - कहता है, 'मुझे मालूम था तुम भीतर ही थे'.

©22.4.06

Sunday, April 16, 2006

Vicarage at Nuenen



न्यूनेन में रहते हुए वेन गॉफ ने सितम्बर अक्तूबर 1885 में Vicarage at Nuenen नामक तैल चित्र बनाया यह चित्र इस समय वेन गॉफ संग्रहालय एमस्टरडम में है , इसी नाम से एक रेखांकन भी उसने बनाया था.

Saturday, April 15, 2006

a day with Vincent in Nuenen



a cold day, with mixed sky and chilling wind, as we wondered around the streets of Nuenen with Vincent,
... I guess he was there. Though the little museum was closed.
We saw the "
Reformed Church"
he
painited in 1884 "Congregation Leaving the Reformed Church in Nuenen"

there was
an introspective stillness... as we slowly walked towards the edge of the town to find the windmill.






in nuenen on 10th april 2006

©photo mrana

Sunday, April 02, 2006

इंद्रधनुष


शनिवार अप्रैल का पहला दिन, बारिश और धूप की तनातनी सारा दिन चलती रही, एक गहरी बौछार फिर उसका जवाब..
एक पारदर्शी चमकती धूप से- कि रुक देखने को विविश हो जाता आकाश अपनी ही नीलिमा को, फिर कोई गुस्साया बादल... छींटाकशी आरंभ होती ...
छींटो की बौछार ... ,
प्रकृति की इस जुगलबंदी पर अभी सोच ही रहा था कि पूरब का आकाश एक विशाल इंद्रधनुष से जगमगा गया.
शाम के 6.25 हो रहे थे , मैं उसे देखता रहा धीरे धीरे वह विलीन होता गया.



1 april 2006
eastern sky, fox hill, Bath - around 6.25 pm Saturday
©mrana

Saturday, April 01, 2006

भौंरा


खिड़की खोलते ही एक ठंडी हवा का एक झोंका कमरे में घुस जाता है लगता है धूप निकलेगी यह सोचकर कुर्सी पर बैठा ही था कि भिनभिनाहट सुनाई दी,
पलट कर देखा एक मोटा सा भौंरा खिड़की के पास भिनभिना रहा था जैसे झांक कर हालचाल पूछ रहा हो .... फिर बिना कुछ सुने वह आगे खहीं बढ़ गया,

क्या गर्मियाँ आ गईं? वसंत बिना बताए आ कर चला भी गया!

Wednesday, March 29, 2006

सुबह सुबह

फोन आया ...मैं कुछ सोच ही रहा था,आश्चर्य को  आश्चर्य ही होना चाहिए ना.

मैंने कभी किसी अन्य जीव को यह कहते नहीं सुना काश मैं मनुष्य होता...

लेकिन जब मैं किसी चिड़िया को हवा में कलाबाजी करते देखता हूँ तो सोचता हूँ काश में उस उड़ान को भर
पाता.

Tuesday, March 21, 2006

वसंत


सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ
यही सोचते मैं बदलता करवट,
परती रोशनी में सुबह की
लापता है वसंत इस बरस , हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार,
पर उसमें ना कोई अता है ना पता
ना ही कोई पहचान
मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा
यदि वह मिला कहीं
क्या मैं पूछूँगा उसकी अनुपस्थिति का कारण
कि इतनी छोटी सी मुलाकात
क्या पर्याप्त
फिर से पहचानने के लिए
तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी
कि याद आए कुछ
जो भूल ही गया,
अनुपस्थित स्पर्श


© 21.3.06 मोहन राणा

फोटो photo © m.rana

Thursday, March 16, 2006

सर्दियों की दुविधा



इस बार सर्दियाँ दुविधा में हैं जायें या ना जायें, वे चल पड़ती हैं फिर रुक जाती हैं, वसंत का कुछ अता पता नहीं हर पेड़ पर गुमशुदा के इश्तिहार लगे हैं
पर ना उसकी कोई तस्वीर उसमें है ना ही पहचान.

16.3.2006 ©
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खिड़की के पास एक ड्रीमकैचर टँगा हुआ है , सपने सुबह होते ही विलोप ना करें ...यह उन्हें पकड़ने के लिए टाँगा हुआ है ,
इसकी कहानी यूँ है

Dream Catchers

Long ago when the world was young, an old Lakota spiritual leader was on a high mountain and had a vision.

In his vision, Iktomi, the great trickster and teacher of wisdom, appeared in the form of a spider.

Iktomi spoke to him in a sacred language that only the spiritual leaders of the Lakota could understand.

As he spoke Iktomi, the spider, took the elder's willow hoop which had feathers, horse hair, beads and offerings on it and began to spin a web.

He spoke to the elder about the cycles of life ... and how we begin our lives as infants and we move on to childhood, and then to adulthood. Finally, we go to old age where we must be taken care of as infants, completing the cycle.

"But," Iktomi said as he continued to spin his web, "in each time of life there are many forces -- some good and some bad. If you listen to the good forces, they will steer you in the right direction. But if you listen to the bad forces, they will hurt you and steer you in the wrong direction."

He continued, "There are many forces and different directions that can help or interfere with the harmony of nature, and also with the great spirit and-all of his wonderful teachings."

All the while the spider spoke, he continued to weave his web starting from the outside and working toward the center.

When Iktomi finished speaking, he gave the Lakota elder the web and said..."See, the web is a perfect circle but there is a hole in the center of the circle."

He said, "Use the web to help yourself and your people to reach your goals and make good use of your people's ideas, dreams and visions.

"If you believe in the great spirit, the web will catch your good ideas -- and the bad ones will go through the hole."

The Lakota elder passed on his vision to his people and now the Sioux Indians use the dream catcher as the web of their life.

It is hung above their beds or in their home to sift their dreams and visions.

The good in their dreams are captured in the web of life and carried with them...but the evil in their dreams escapes through the hole in the center of the web and are no longer a part of them.

They believe that the dream catcher holds the destiny of their future.

http://www.cia-g.com/~gathplac/dreamcatcher_legend.htm

Tuesday, March 07, 2006

Blog



ब्लाग

देखें तो कौन रहता है इस घर में
किसी आश्चर्य की आशा
धीरज से हाथ बाँधे खड़ा
मैं देता दस्तक दरवाजे पर
सोचता- कितना पुराना है यह दरवाजा
सुनता झाडि़यों में उलझती हवा को
ट्रैफिक के अनुनाद को
सुनता अपनी सांस को -बढ़ती एक धड़कन को
पायदान पर जूते पौंछता
दरवाजे पे लगाता कान
कि लगा कोई कोई निकट आया भीतर दरवाजे के
बंद करता आँखें
देखता किसी हाथ को रुकते एक पल सिटकनी को छूते
निश्वास जैसे अनंत सिमटता वहीं पर,

भीतर भी
बाहर भी
मैं ही जैसे घर का दरवाजा
अजनबी बनता
पहचान बनाता





28.2.06 © मोहन राणा

Friday, February 24, 2006

अपने मतलब की बात

दोपहर बरफ गिरती रही धरती को छूते ही विलीन होती रही, फिर सर्द हवा आई और दिन अँधरे में चला गया.
कभी एक सलाह दी जाती थी कभी बोल कर कभी संकेतो से - कि कोई प्रश्न न करो.. अपने मतलब से काम रखो.
आज का अखबार देखा - यह सलाह उसके मुख पृष्ट पर .. पर यह तो वही पढ़ सकते हैं जो अपने मतलब से काम नहीं रखते

Wednesday, February 15, 2006

ढलान पर


कुछ दिनों के पाले के बाद मौसम कुछ सुधरा कि बारिश आ गई, धूप कभी कभी निकल ही आती है
बगीचे की ढलान पर कुछ फूल खिलते हुए दिखे .. वसंत पास ही है

Friday, February 10, 2006

बस एक पल का अंतर

बचपन में यानि कल , हम एक संस्कृत का श्लोक सुना करते थे,
वह हमें समझाने के लिए बताया जाता था अक्सर जब देर से कभी उठने पर तो....

काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च | अल्पहारी गृह्त्यागी विद्यार्थी पंचलक्षण्म् ।|

पर हमने कभी इस ज्ञान का पालन नहीं किया
जिंदगी ही इतनी ज्यादा पसरी हुई है कि इन पाँच नियमों को याद रखने की फुरसत कहाँ,
भूल गए उन्हें इस लिए यह याद है.

आजकल नींद एक बजे के बाद कभी आती है, और सुबह अपने समय पर।
जागने और सोने में जैसे बस एक पल का अंतर, अवगम ।

Thursday, February 09, 2006

पावती


लौटती हुई रचनाएँ
किसे होता है खेद
संपादक को
कवि को ?
शहडोल के शर्मा जी को
परीक्षाओं के कुंजीकारों को
नई सड़क की भीड़ को
किसी अधूरे
बड़बड़ाए वाक्य को
किसे होता है खेद इस चुप्पी में

मुझे कोई खेद नहीं
उन्हें भी कोई खेद नहीं
फिर यह पावती किसके लिए


9.2.2006 © मोहन राणा

सच का हाथ

ये आवाजें
ये खिंचे हुए
उग्र चेहरे
चिल्लाते

मनुष्यता खो चुकी
अपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार में
बस टटोलती एक क्रूर धरातल को,
कि एक हाथ बढ़ा कहीं से
जैसे मेरी ओर
आतंक से भीगे पहर में
कविता का स्पर्श,
मैं जागा दुस्वप्न से
आँखें मलता
पर मिटता नहीं कुछ जो देखा



7.2.06 © मोहन राणा

Sunday, February 05, 2006

एक गीत

लोकल सेंसबरी सुपर मार्केट में लाईन लंबी थी रविवार को वह 4.30 बजे ही बंद हो जाता है, मैं सामान को ट्रॉली से निकाल कर काउंटर पर रख ही रहा था कि ...हिन्दी के कुछ शब्द सुनाई दिए
बगल वाली लाइन में दो लड़के एक लड़की के साथ गप कर रहे थे... फिर वह सुरीली आवाज में गाने लगी

राम करे ऐसा हो जाए मेरी निंदिया तोहे मिल जाए

मैं जागूँ तू सो जाए मैं जागूँ तू सो जाए


कुछ समझ नहीं आया दोपहर बाद 4.30 बजे इंग्लैंड के एक प्रांतीय शहर के सुपरमार्केट में वह खुलकर क्यों गाने लगी..
शायद वह गाना मन में आ गया... और उससे रहा नहीं गया.

Saturday, February 04, 2006

सर्दियाँ

जमे हुए पाले में
गलते पतझर को फिर चस्पा दूँगा पेड़ों पर
हवा की सर्द सीत्कार कम हो जाएगी,
जैसे अपने को आश्वस्त करता
पास ही है वसंत
इस प्रतीक्षा में
पिछले कई दिनों से कुछ जमा होता रहा
ले चुका कोई आकार
कोई कारण
कोई प्रश्न
मेरे कंधे पर
मेरे हाथों में
जेब में
कहीं मेरे भीतर
कुछ जिसे छू सकता हूँ
यह वजन अब हर उसांस में धेकलता मुझे नीचे
किसी समतल धरातल की ओर,

4.2.06 © मोहन राणा

Sunday, January 29, 2006

वीभत्स रस

अभी एक ब्लाग पढ़ा http://delhiblog.blogspot.com/2006/01/blog-post_27.html पटियाला के एक व्यापारी ने आत्म दाह किया और किसी ने उसे रोकने बचाने की कोशिश नहीं की टेलिविजन कैमरे घटना की फिल्म खींचते रहे पर आग बुझाने की कोशिश किसी ना की और वह मर गया.
इस बात पर मुझे एक बातचीत याद आती है.
कुछ वर्ष पहले मैं नवभारत टाइम्स के संपादकीय कार्यालय में एक पत्रकार मित्र के पास बैठा था, वे कुछ काम में लगे थे उनकी मेज पर इंडिया टुडे का एक अंक पड़ा था उसे मैं उलटने पुलटने लगा दिल्ली के पास हुई एक हवाई दुर्घटना की तस्वीरें उसमें छपी थीं,
उन तस्वीरों को देख कर मैंने अपने मित्र से पूछा, ये क्षोभजनक... दहला देने वाली तस्वीरें इस पत्रिका ने क्यों छापी? उन्होंने एक पल को मेरी ओर देखा और फिर बोले ... "वीभत्स भी तो एक रस है !"

एक और आयाम


कितने आयाम कि चैन नहीं जिसमें
ली यह सांस करने यह सवाल
कि नहीं करूँगा फिर वही सवाल,
मैं चिड़िया हूँ या पतंग
या दोनों ही हूँ एक साथ
उस आयाम में
ढलती एक शाम

29.1.06 © मोहन राणा



Other dimensions might soon be detected
Jan 27, 2006, 1:02 GMT

IRVINE, CA, United States (UPI) -- Northeastern University and University of California scientists say they might soon have evidence of extra dimensions and other exotic predictions.

Early results from a neutrino detector at the South Pole called AMANDA suggest ghostlike particles from space could serve as probes to a world beyond our familiar three dimensions, the research team says. The evidence, they say, would come from how neutrinos interact with other forms of matter on Earth.

No more than a dozen high-energy neutrinos have been detected so far. However, the current detection rate and energy range indicate AMANDA`s larger successor, called IceCube, now under construction, could provide the first evidence for string theory and other theories that attempt to build upon our current understanding of the universe.

An article describing this work appears in the current issue of Physical Review Letters
related link » http://science.monstersandcritics.com/news/article_1089401.php/Other_dimensions_might_soon_be_detected
related link » http://www.dailytech.com/article.aspx?newsid=504

Sunday, January 22, 2006

कविता


कविता जीवन का क्लोरोफिल*
और जीवन सृष्टि का पत्ता
उलटता पृष्ठ यह सोचकर
कौन सोया है इस वृक्ष की छाया में
किसका यह सपना
जो देखता मैं
उसे अपना समझ कर.

©22.1.06
*(Chlorophyll)

Saturday, January 21, 2006

सुबह सुबह


बदली चादर आकाश ने

गंतव्य



दो रास्ते के पास सूखी नदी को पार करते
पूरी हो गई बस यात्रा
एक तस्वीर मेरी अल्बम में



©21.1.2006 मोहन राणा

Sunday, January 15, 2006

फिर वही


दिसंबर की गुनगुनी धूप, राई के पत्तों पर बिखरी फीकी होती बीतती दोपहर कि ढलता दिन थक सा गया अपने को दुहराते जैसे साल भर, सरसों के रंग पर मुग्ध या मुध पान में र्निलिप्त तितली.

25.12.05 लोनी गाजियाबाद

फिर वही


दिसंबर की गुनगुनी धूप, राई के पत्तों पर बिखरी फीकी होती बीतती दोपहर कि ढलता दिन थक सा गया अपने को दुहराते जैसे साल भर, सरसों के रंग पर मुग्ध या मुध पान में र्निलिप्त तितली.

25.12.05 लोनी गाजियाबाद

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...