बुदबुदाते शब्द झर कर गिर जाते अदृश्य धूल के कणों की तरह
चर्च के ठंडे फर्श पर
प्रार्थना के शब्द
शोक के शब्द
स्मृति के शब्द
अनुपस्थिति को उकेरते शब्द
विस्मृति की स्याही में
एकांत के शब्द
इस बार बसंत भी भूल गया जल्दी आना.
क्या मैं फुसफुसा दूँ कुछ तुम्हारे कानों में
(इस मृत्युलोक में जीवित देह)
इससे पहले कि तुम भूल जाओ इस जनम को
केवल हमारे लिए बुदबुदाते स्वरों के बीच
20.2.10 कविता - फोटो © मोहन राणा
Saturday, February 20, 2010
Wednesday, February 17, 2010
कालापानी नीली लहरें
कर दो दान चुराया माल- भला करे भगवान
ना लिखे भी
ना सोचे भी
ना चीख पुकार के भी
नानाविध उपकरण और विधियाँ भी बेकार हैं
उपाय यही इस मन से मोक्ष का
अब खाली दानपात्र में बस बचा मैं ही हूँ
चुराता नहीं जिसे वहाँ से कोई ,
कभी कभी देखना भी जरूरी होता है
आइने को अपने अलावा भी
© मोहन राणा 17.2.10
ना लिखे भी
ना सोचे भी
ना चीख पुकार के भी
नानाविध उपकरण और विधियाँ भी बेकार हैं
उपाय यही इस मन से मोक्ष का
अब खाली दानपात्र में बस बचा मैं ही हूँ
चुराता नहीं जिसे वहाँ से कोई ,
कभी कभी देखना भी जरूरी होता है
आइने को अपने अलावा भी
© मोहन राणा 17.2.10
Monday, February 15, 2010
खग्रास
हमने अँधेरे को मिटाने की कोशिश
पर गुलाम हो गए चमकते बल्बों की चौंधियाहट से
कि नहीं दिखता कुछ भी उस चमकते अँधेरे में,
गढ़ा एक नया अँधेरा जिसकी रोशनी में मिटा दिया दिन को
खिड़की पे खींच कर पर्दा
तुम्हारी निराशा को अपनी कोशिश में
ठीक करते करते मैं भूल भी गया अपनी गलतियों को
अगर तुम्हें मिले वह आशा का चकमक पत्थर इस घुप्प में टटोलते,
बंद कर देना बत्ती कमरे से बाहर जाते हुए
देखना चाहता हूँ अँधेरे को तारों की रोशनी में
बंद आँखों के भीतर.
© मोहन राणा 15.2.10
पर गुलाम हो गए चमकते बल्बों की चौंधियाहट से
कि नहीं दिखता कुछ भी उस चमकते अँधेरे में,
गढ़ा एक नया अँधेरा जिसकी रोशनी में मिटा दिया दिन को
खिड़की पे खींच कर पर्दा
तुम्हारी निराशा को अपनी कोशिश में
ठीक करते करते मैं भूल भी गया अपनी गलतियों को
अगर तुम्हें मिले वह आशा का चकमक पत्थर इस घुप्प में टटोलते,
बंद कर देना बत्ती कमरे से बाहर जाते हुए
देखना चाहता हूँ अँधेरे को तारों की रोशनी में
बंद आँखों के भीतर.
© मोहन राणा 15.2.10
Friday, February 12, 2010
बावली धुन
रात थी सुबह हो गई
करवटों में भी नहीं मिली कोई जगह
गलत पतों की यात्रा यह मेरे दोस्त
रास्ता भूलना है तो साथ हो लो,
शर्त यही कि भूलना होगा अपना नाम पहले,
वैसे डर किसे नहीं लगता लोगों के भूल जाने का
याद दिलाते रहें जनम जनमों तक
उन्हें अपनी अनुपस्थिति की
कब होगी पहचान सपने और सच्चाई की
जागकर भी पता चले कैसे
जब सोया हो हर कोई आसपास
स्मृति की नींद में,
एक बावली धुन साथ है जो उतरती नहीं मन से.
© मोहन राणा
Wednesday, February 10, 2010
कविता ही फिलहाल
Monday, February 01, 2010
चाँदनी रात में खामोशी
मैं सहमत हूँ
चाँदनी रात में खामोशी से
मन में सीत्कारती चिंताओँ से
दिल में कुछ ढोती बेचैनी से
कमर में किसी बोझ की अनुभूति से
मुझ से थक चुकी नींद से
मैं सहमत हूँ
तुम्हारे भय से
दिन के अँधेरे में चलते आर्तनाद से,
असहमतियों के साथ बैठे
इस स्थिति से सहमत हूँ
थक चुका हूँ कतारें बदलते बदलते
निश्चित नहीं है जीवन में आश्चर्य हमेशा
अगर किसी को मालूम हो घड़ी में निरंकुश समय बदलना
हो चुका है अतीत जो अब याद नहीं है भविष्य की तरह,
कितनी बार बदली सूईयाँ मैंने इसकी
हर बार मैँ ही गिरता
मैं ही चूकता
मैं ही भूलता
साबुन के बुलबुले उड़ाते
© मोहन राणा
31.1.10
चाँदनी रात में खामोशी से
मन में सीत्कारती चिंताओँ से
दिल में कुछ ढोती बेचैनी से
कमर में किसी बोझ की अनुभूति से
मुझ से थक चुकी नींद से
मैं सहमत हूँ
तुम्हारे भय से
दिन के अँधेरे में चलते आर्तनाद से,
असहमतियों के साथ बैठे
इस स्थिति से सहमत हूँ
थक चुका हूँ कतारें बदलते बदलते
निश्चित नहीं है जीवन में आश्चर्य हमेशा
अगर किसी को मालूम हो घड़ी में निरंकुश समय बदलना
हो चुका है अतीत जो अब याद नहीं है भविष्य की तरह,
कितनी बार बदली सूईयाँ मैंने इसकी
हर बार मैँ ही गिरता
मैं ही चूकता
मैं ही भूलता
साबुन के बुलबुले उड़ाते
© मोहन राणा
31.1.10
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