Tuesday, September 25, 2007

डरौआ

समय के बिना भी
मैं जी लूँगा समय निकाल कर कहीं से
धूप के अँधेरे में,

स्वागत करूँगा समयहीन प्रदेशों में विपत्त्तियों के अंधड़ों का
इस बार भी,
कोई और नहीं आता उसके अलावा इस ओर


©2007/9/25

Sunday, September 16, 2007

सितंबर


दो मौसमों की टकराहट है इस क्षण, अचानक ग्रीष्म को ध्यान आया जाने का समय है पर जाने का मन नहीं है, शरद दरवाजे पर, थपथपाता. बेचैन पेड़ों में पत्तों की सरसराहट. धूप गरम है और हवा ठंडी... अनिश्चितता और आशंका का अतंराल, हर तरह के समझदार अनुभवी आश्वसनों के बावजूद .
अनिश्चितता ही एक मात्र निश्चितता लगती है.
हाथ उठा कर जवाब देना, जो हो चुका बताने की वाली बात है और उसकी पुष्टि भी वही बात है - दोनों का स्रोत स्मृति है. वहीं से सवाल है वहीं से जवाब.

Sunday, September 09, 2007

हर पहचान में





पेंच जहाँ भी पड़ती नजर

हर दिशा हर जगह हैं,

खिड़की दरवाजों दीवारों मेज

और जिस कुर्सी पे बैठा हूँ उस पर भी

पूरे घर में पेंच लगे हैं

वे संभाले हैं इसे गिरने से

सारी सड़क सारी दुनिया में पेंच लगे हैं

वे संभाले हुए हैं निकटताओं में दूरियों को,

नाना रूप धारी वे उपस्थित हैं हर पहचान में


मुझ पर भी लगे हैं पेंच भीतर और बाहर

बाँधे हुए मुझे अपने आप से

किसी धीमी आवाज से

और इन शब्दों से,

उनके झूठ का घाव बचाए हुए है मुझे व्याकरण के कारावास में सच से,

बस किसी अभाव को कुरेदता

खोज में हूँ किसी पेचकश की

कि खोल दूँ इनको

कि देखूँ

कि संभव है आकाश का नीला रंग

बिना ऑक्सीजन के भी

दीवार पर पेंच से जड़ी तस्वीर में

13.10.2003



"देखा मुखौटा किसका " कविता संग्रह" से ©

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...