Monday, September 15, 2008

गिरने की आवाज

कविता कहती है पेड़ों से छनती हुई रास्ते पर गिरती रोशनी को छुओ

Sunday, September 07, 2008

पानी का रंग


यहाँ तो बारिश होती रही लगातार कई दिनों से
जैसे वह धो रही हो हमारे दागों को जो छूटते ही नहीं
बस बदरंग होते जा रहे हैं कमीज पर
जिसे पहनते हुए कई मौसम गुजर चुके
जिनकी स्मृतियाँ भी मिट चुकी हैं दीवारों से

कि ना यह गरमी का मौसम
ना पतझर का ना ही यह सर्दियों का कोई दिन
कभी मैं अपने को ही पहचान कर भूल जाता हूँ,

शायद कोई रंग ही ना बचे किसी सदी में इतनी बारिश के बाद
यह कमीज तब पानी के रंग की होगी !

© मोहन राणा 8.9.2008

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...