Friday, December 16, 2005

एक कविता फिर से

आज सुबह कागजों को उलटते पुलटते यह कविता मिल गई.
झपकी

नंगे पेड़ों पर
उधड़ी हुई दीवारों पर
बेघर मकानों पर
खोए हुए रास्तों पर
भूखे मैदानों पर
बिसरी हुई स्मृतियों पर
बेचैन खिड़कियों पर
छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,
हल्का सा स्पर्श
ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,
उठता है मंद होते संसार का स्वर
आँख खुलते ही


3.2.05 © मोहन राणा

Saturday, December 10, 2005

आलू बुखारा

बगीचे में आलु बुखारे का पेड़ कल लगाया, पता नहीं वह ठंड को झेल पाएगा, उसमें जड़ें ही नहीं थी!!
पत्ते तो थे ही नहीं...बच गया तो कभी उसमें जामुनी रंग के फल आएँगे.

Sunday, December 04, 2005

भंवर


अंगूर की बेलों में लिपट
सो जाती धूप बीच दोपहर
गहरी छायाओं में
सोए हैं राक्षस
सोए हैं योद्धा
सोए हैं नायक
सोया है पुरा समय खुर्राता
अपने आप को दुहराते अभिशप्त वर्तमान में.

4.12.05 © मोहन राणा

Friday, December 02, 2005

चश्मा


कभी कभी लगाता हूँ
पर खुदको नहीं
औरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा,
कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में
उनकी चुप्पी में,
कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भी
आइने में अपने को को देखते,
मुस्कराहट के छोर पर.

2.12.05 © मोहन राणा

Saturday, November 26, 2005

अपवाद

तुम अपवाद हो इसलिए
अपने आपसे करता मेरा विवाद हो,
सोचता मैं कोई शब्द जो फुसाले दे
मेरे साथ चलती छाया को कुछ देर कि मैं छिप जाउँ किसी मोड़ पे,
देखूँ होकर अदृश्य अपने ही जीवन के विवाद को
रिक्त स्थानों के संवाद में.


26.11.05 © मोहन राणा

Wednesday, November 16, 2005

तुम्हारा कभी कोई नाम ना था

वे व्यस्त हैं
वे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैं
मुझे शिकायत नहीं वे व्यस्त
मेरे हर सवाल पर उनका हाल
कि वे व्यस्त हैं,
रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलता
पर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्र
मैं व्यस्त हूँ
मैं व्यस्त हूँ
सदा समय के साथ
सदा समय के साथ

पर कान वाले लोग बहरे हैं,
और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को .

और समय वही दोपहर के 11.22
कहीं शाम हो चुकी होगी
कहीं अभी होती होगी सुबह नयी
कहीं आने वाली होगी रात पुरानी

क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभी
पूछता उससे
जैसे कुछ याद आ जाए उसे,
लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती,
कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी को
जो अब याद नहीं
कि भूलना कठिन है तुम्हें



16.11.05 © मोहन राणा

Monday, November 14, 2005

सर्दियाँ









शाम को अचानक आकाश लाल हो उठा उस लालिमा में फंसा पिघलता हुआ चाँद पूर्व दिशा में दिखने लगा. बस जैसे ऐसे ही किसी मौके की प्रतीक्षा में छुपा था वह - अँधकार.

अँधेरा छायाओं से मुक्त हो बड़ी तेजी फैलने लगा, सारा दिन अपने आपको पेड़ों से छुड़ाते कोहरे को भागने का मौका ही नहीं मिला कि अँधरे ने उसका हाथ थाम लिया

ठंड से अकड़ा कोहरा लेता ठिठुरती सांस.

Monday, November 07, 2005

माया

मैं बारिश में शब्दों को सुखाता हूँ ,
और एक दिन उनकी सफेदी ही बचती है
जगमगाता है बरामदा शून्यता से
फिर मैं उन्हें भीतर ले आता हूँ

वे गिरे हुए छिटके हुए कतरे जीवन के
उन्हे चुन जोड़ बनाता कोई अनुभव
जिसका कोई अर्थ नहीं बनता,
बिना कोई कारण पतझर उनमें प्रकट होता
बाग की सीमाओं से टकराता
कोई बरसता बादल,
दो किनारों को रोकता कोई पुल उसमें
आता जैसे कुछ कहने,
अक्सर इस रास्ते पर कम ही लोग दिखते हैं
यह किसी नक्शे में नहीं है
कहीं जाने के लिए नहीं यह रास्ता,
बस जैसे चलते चलते कुछ उठा कर साथ लेते ही
बन पड़ती कोई दिशा,

जैसे गिरे हुए पत्ते को उठा कर
कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं




7.11.05 ©मोहन राणा / Photo by Drakpa

Thursday, November 03, 2005

परिधि

क्या अंत का भी कोई आंरभ होता है
जो नहीं होता है कभी उसका भी कोई अंत होता है,
भ्रम को सच मानते

Wednesday, November 02, 2005

विलाप

विलाप

वह किसी का हाथ
रूमाल में लिपटा,
वह खोया हुआ हाथ
उस हाथ ने कभी छुआ अपने जन्म को
और जाना अपने होने को,
उसने छुआ रोटी के टुकड़े को
प्रेम के स्पर्श को
और लिखा कुछ,
एक गर्म दिन
उसने टटोला हवा की उपस्थिति को
,
बरसते हुए मानूसन को समेटा अंजलि भर
बादलों की गर्जना में हल्की सी सीत्कार समुंदर की
,


उस हाथ ने कभी संभाला गिरते हुए को
खोजा खोए हुए को
टटोला अँधेरे में बत्ती को,
हाथ पकड़ा किसी का सड़क पार करते ।
मैंने तस्वीर में देखा
एक हाथ उठाए है रूमाल में लिपटे एक विक्षत हाथ को
जिसका नहीं कोई चेहरा
नहीं पहचान
कोई नाम,
आतंक से उपजे शोक में
कोई विलाप नहीं
शब्दों में मृतकों के लिए





© मोहन राणा 2.11.05

Monday, October 31, 2005

29 अक्तूबर 05

शनिवार की दोपहर मैं शहर के बीच पोस्ट ऑफिस में प्रवेश कर रहा था , फोन को चालू किया तो उसमें एक
संदेश - जैसे एक पल को समय रुक सा गया - दिल्ली में विस्फोट!
आसपास का कोलाहल एकाएक खामोश हो गया उसे पढ़ते ही , एक सांस कहीं गुम हो गई.

यह क्या हो गया दीपावली के पहले?

...देर रात तक मैं पता करता रहा लोगों के हाल फोन से ईमेल से ,
नेट पर तस्वीरों में सदमा, शोक, भय और अनिश्चय, ठिठकते आंतकित दिल्ली के नागरिक

फिर पढ़ा कि ...

लोगों की शिकायत थी कि तमाम वीआईपी लोगों के लगातार अस्पताल आते रहने से घायलों और उनके परिजनों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

अस्पताल में भर्ती घायलों के परिजनों में से एक ने बताया, "यहाँ लगातार नेताओं का आना-जाना लगा है और इसके चलते हमें बार-बार वॉर्ड से बाहर निकाल दिया जा रहा है और हम अपने घायल परिजनों से नहीं मिल पा रहे हैं. बाहर न तो बैठने की जगह है और न ही पीने को पानी."


रविवार की सुबह रेडियो चालू किया , बीबीसी पर एक औरत की आवाज खबरों में सुनाई दी ... वह कह रही थी तो कि हम इतने इतने रुपए मृतकों और घायलों के परिवारों को सहायता के लिए देंगे. बाद में पता चला वह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित थीं.

Wednesday, October 26, 2005

निर्मल वर्मा


निर्मल जी का मंगलवार की शाम को दिल्ली में निधन हो गया. कुछ दिन पहले ही मैं उनके स्वास्थय के बारे में सोच रहा था. मुझे लंदन से आज दोपहर एक ईमेल से यह खबर मिली.
जनसत्ता के लिए मैंने 1988 में लेखकों के साथ एक वार्तालाप श्रंखला "जो लिखा जा रहा है " लिखी. उसके लिए मैं निर्मल जी से करोलबाग उनके घर मिलने गया और फिर एक छोटी सी बातचीत घर की बरसाती में की. यह रविवारी जनसत्ता में 7 अगस्त 1988 में प्रकाशित हुई थी.
दिल्ली में उनसे पिछली बार मेरी मुलाकात इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नवंबर 2002 में हुई थी, हम दोपहर का भोजन करते हुए कुछ बातें करते रहे मैंने उन्हें अपनी किताब "सुबह की डाक " भेंट की.
अभी मैंने फिर से जनसत्ता में छपी उस बातचीत की कतरन को खोज कर पढ़ा..अखबारी कागज का पीलापन बढ़ता जा रहा है और इसकी छपाई धूमिल पड़ती जा रही है.

एक दिन सारे अक्षर गुम हो जाएँगे. बस कुछ निशान...

पतझर अपने आप को समेट रहा है इन दिनों , पिछले दिनों की लगातार बारिश ने उसके रंगों को धो दिया है, बस जहाँ तहाँ गिरे हुए
गीले पत्ते- गलते हुए.
पूर्व दिशा में आज कल शाम ढलते ही मंगल ग्रह प्रकट हो जाता है चमकता और धरती के निकट आता हुआ.

Tuesday, October 25, 2005

पहली किताब से



संजय के अनुरोध पर पहले संग्रह "जगह" से यह कविता फिर


विदा


जब हम फिर मिलेंगे
हमें फिर से
बनना पड़ेगा दोस्त

1986


जगह(1994) पृष्ठ 30
जयश्री प्रकाशन, दिल्ली

Wednesday, October 19, 2005

जाना कुछ

अपना देश बेगाना, इस बेगानगी के सफर में.
झरते सहमते पत्ते पलभर को बल खाते
जैसे लेते एक झलक फिर
उस टहनी की जहाँ पिछला बसंत आया
कांपती रोशनी जाते हुए झोंके में,
किसको मैं देखता कि रूकता कुछ पहचान कर.



19.10.05

Friday, October 14, 2005

कभी नहीं जैसे कितनी बार

सचमुच रास्ते का कहीं पहुँचने से कोई सम्बंध नहीं - पर चलने से है.
चलती रहती , घिसटती रपटती पंक्चर गाड़ी- अटकती झटकती
चलती बस चलती, पहुँच कहीं दूर वहीं जैसे फिर शुरू करती
सीखती चलना पहचानती सीधे पर अचानक आए मोड़ को,
एक बार यह होना
कभी नहीं जैसे कितनी बार


©14.10.05 मोहन राणा

Saturday, October 08, 2005

भूकंप

कुछ खड़खड़, दरवाजे का कुंडा हिलने लगा
धरती मेरे पाँवों नीचे कांप रही थी
और मैं डर से खोज रहा था
कोई जगह जहाँ
कोई खड़खड़ ना हो
दरवाजा बंद रहे शांत
और धरती ना कांपे मेरे पैरों नीचे,
मैंने पेड़ को हिलते देखा
हवा को सहमते
छायाओं को छुपते
दुस्वपन बीच एक दोपहर.

Thursday, October 06, 2005

कुछ मौसम ऐसा

कुछ मौसम ऐसा कि बातें अपने आप वैसी ही हो जाती हैं,
तो बीतते हुए इस समय के लिए एक छोटी सी...कविता

बारिश हो रही है, पानी की बूँदों में गिरता पतझर
अचल खड़ा- भीगता
बस सुनता अपने दिल की धड़कन


©
6.10.05

Wednesday, October 05, 2005

नदी किनारे



नदी किनारे हवा ठंडी , घुल रहा था शाम का रंग पानी की मौन सतह में कि तभी एक छपाक,
कोई मछली या बत्तख या दोनों ही या कोई स्मृति जैसे बस चौंकाने के लिए- बिना कुछ कहे.
चलती हल्की रिमझिम में दुनिया दूसरी ओर नदी किनारे .
हमेशा पुल के दोनों ओर, और मेरे लिए दूसरी ओर यह दुनिया.

5.10.05 ©

Monday, October 03, 2005

Friday, September 30, 2005

बारिश


पानी की बूँदें ठहर गई गिरते हुए
सीढ़ियों से उतरते मैं रुक गया जैसे
पहली बार मैंने देखा समुंदर को उन बूँदों में,
कोई सीत्कार पतझर की खामोशी में.



©1.10.05

"The poet's condition"

If this light were even whiter

You and I would be invisible

We'd live our invisible pain

And not know

The absence of joy

We'd marvel the invisibility

In which shadows disappear

Forms vanish

Falling we'd imagine flying without a sky

Only a sound

Which reaches the remaining memory

Where knowledge is not a necessity

The poet's condition

Poetrys fate

This

Together

A breath


© 2005
Translation of Mohan Rana's original Hindi poem "kavi ka haal" by Lucy Rosenstein

Many thanks to Lucy ~

For reading more translations of Mohan Rana's poems published few years ago in "Modern Poetry in translation "
please visit this web page.

Thursday, September 29, 2005

तु्म्हारा नाम

हाँ बारिश सब जगह थी कल, आज कुछ धूप उदासीन, कतराए बादलों में
और अब पतझर धीरे धीरे जैसे कुछ लिखता समय की हथेली पर,

पतझर

जिस पार्क में दौड़ रही दुनिया
उसके किनारे खड़ा मैं पतझर

Tuesday, September 27, 2005

पहचान

मैं हवा के बारे में सोच रहा था, उसकी कोई सीमा नहीं है ना ही कोई देश
ना उसकी अपनी जाति, भाषा
ना कोई अस्मिता का सवाल
कोई घर भी नहीं उसका वह हमेशा बेघर
दुनिया के विस्तार में
रोशनी और परछाईयों के खेल में,
जीवन और मृत्यु उसके लिए एक समान
एक सांस

किसी से भी पूछो - क्या है यह
और हर भाषा में एक ही जवाब है - हवा

अपने हाथों को कानों से लगा
मैं सुनता हूँ उसे कुछ बोलते
तुम्हारी आवाज में


©मोहन राणा mohan rana 27/9/05



Tuesday, September 20, 2005

इतने सवाल फिर भी

कोई सही सवाल नहीं मिलता
हर सवाल जैसे किसी और सवाल के लिए
पूछते



20.9.05

Sunday, September 11, 2005

कौन


बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को, उठा कर सीधा करता
गिरी हुई को
कतरता पौछंता झाड़ता बुहारता,
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
कहते सामान्य
सब कुछ नया साफ सुथरा
जैसे मैं देखता उसे इस पल
और बदलता तभी
छूटता मेरे हाथों से
जैसे वह कभी ना था वहाँ

कौन रुक कर पूछता मैं
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें

11.9.05 ©

Wednesday, September 07, 2005

पहचान पत्र

धीरे धीरे चलती है इंतजार की घड़ी
और समय भागता है समय की परछाईयों में
रोशनी के छद्म रुपों में,
मैंने चुना है यह मुखौटा
केवल पहचान पत्र के लिए


© 8.9.05 मोहन राणा

Sunday, September 04, 2005

मचान

आकाश नजदीक था
सीढ़ियाँ अंतहीन
और ऊँचाई बहुत पास
कि छू कर बदल दूँ रंग आकाश का
कुछ और उठा दूँ पहाड़ों को
रोक दूँ समय को लाल टाइलों की छतों पर,
पर डर से देखता नहीं नीचे
बढ़ती गहराई को



4/9/05 © mohan rana
Guinigi Tower Lucca

Friday, August 26, 2005

अर्थ

वे बोल कर सुनते हैँ अपना ही कहा अर्थ,
खुली हुई आँखें फिर भी देखते सपना




26.8.05 ©

Wednesday, August 24, 2005

चाबी

यह वाकया उन्नीस सौ अस्सी का है उस वक्त में ग्यारवीं में पढ़ रहा था. हमारे दिल्ली टेक्निकल स्कूल  में  विज्ञान के अलावा केवल तकनीकी विषयों केंद्रित  पढ़ाई होती थी मेरा मुख्य विषय इलैक्ट्रानिक्स था.  अंग्रेजी के एक विषय को छोड़ कर साहित्य की वहाँ कोई उपस्थिति नहीं थी मैं खुद भी काव्य साहित्य की दुनिया से बेखबर था पर स्कूल के परिसर  में एक इमारत थी जिसमें  कभी दाराशिकोह का पुस्तकालय हुआ करता था उसका आधा हिस्सा बंद पड़ा था और आधे भाग का उपयोग रसायन प्रयोगशाला के रूप में किया जा रहा था.
सर्दियाँ  अपने उतार पर थी और वसंत के निशान  दिल्ली के कुँहासे में प्रकट होने लगे थे.  मैं स्कूल की बेंच पर बैठा धूप सेंक रहा था कि मेरी नजर जमीन पर पड़े एक लिफाफे पर गई कोई मूँगफलियाँ खाकर छिलकों के साथ उसे भी वहीं फेंक गया था.  यह जानने कि उस पर क्या छपा है  उठाकर देखा और उसे खोल कर जब फैलाया तो उसमें कविता की किताब के दो पन्ने थे...यह  मेरी पहली कविता की किताब थी. कविता ने  मन में एक खिड़की खोल दी.

मैं उस आदमी की तलाश में हूँ जिसने वह ढाई सौ ग्राम मूँगफली खरीदी थी.
कभी कवि ने कविता लिखी कविता एक संग्रह में छपी किताब बिकी  अनबिकी  रद्दी में चली गई उसके पन्नों के लिफाफे बने, लिफाफे बिके, मूँगफली वाले से किसी ने  मूँगफली खरीदी स्कूल की बेंच पर आराम से उन्हें खा  चबा के छिलकों के साथ वह लिफाफा फेंक गया.
कुछ देर बाद एक हाथ उस कचरे की ओर बढ़ा, छपे अदृश्य हो गए शब्दों में फिर  से जनम लिया कविता ने.

Monday, August 22, 2005

आवाज


कविताएँ मिली -
वे लहरों की तरह थी - सीत्कारते समुंदर को फिर लौट गईं,
बालू के कुछ कण चमकते मेरी हथेली पर,
और अचानक मैं रुका सीढियों पर कुछ सोचकर
बहुत रात, ठंडाए अंधरे में बोलता कभी उल्लू फिर कुछ सुनता


22.8.05 © मोहन राणा

Friday, August 19, 2005

दिन


कल को जिया
कि जियूँ एक और कल को,
सिमटते सारे दिन जैसे अपने आप में.

19.8.05

Monday, August 01, 2005

कोई आकर पूछे


रुके और पहचान ले
अरे तुम
जैसे बस पलक झपकी
कि रुक गया समय भी,
कोई अधूरा दिख गया.




1.8.05 © मोहन राणा

Saturday, July 30, 2005

कुछ तस्वीरें






कुछ तस्वीरें, जहाँ सड़क का कोना खत्म होता है -
कोई मोड़,
फिर नया शुरू होता है.





30 जुलाई 05 © मोहन राणा

Thursday, July 28, 2005

समुंदर के किनारे


ज्वार और भाटा दोनों एक साथ जैसे - लगातार टकराती लहरें- और समुंदर का टूटता सीत्कार.

Tuesday, July 19, 2005

जगह

शाम को मैं बादलों को देख रहा था और उस पल मैं दिल्ली पहुँच गया
डामर की सड़क जिस पर बारिश की बौछार के बाद निंबौरियाँ बिखरी थी और नंगे पाँव.


20.7.05 © मोहन राणा

Monday, July 18, 2005

अर्धसत्य



....पर अर्धसत्य - आधा सच आधा झूठ ही तो है. दोनों एक साथ .
एक देह में दो टुकड़े आत्मा - यह बँटवारा
जैसे मुस्कराहट भी भय की पहचान हो



17.7.05 © मोहन राणा

Sunday, July 17, 2005

लकीर


मैंने तो कभी नहीं कहा मैं खींच रहा हूँ आकाश पर लकीर, मैंने बस बोलते हुए सोचा
आकाश पर लकीर खींच रहा हूँ ,
कि
नींद खुल गई यह देखकर


17.7.05 © मोहन राणा

Friday, July 15, 2005

इतना भर

क्या कहूँ नया कि याद
नहीं कहा क्या आखिरी बार,
कहाँ से शुरू करूँ बात

मालूम नहीं कौन सा शब्द
निकले इस अजनबी निकटता में
मुलाकात यह पहचान पुरानी,

जैसे धूप का कोई कतरा
अटका पेड़ की छाल में ,
आज होगी पूरी कि बस
एक आश्वासन



16.7.05 © मोहन राणा

दरवाजा

स्टेशन के दरवाजे के सामने
दरवाजा है हमारा
बस निकलते ही सामने है,
स्टेशन पर पहुँचते ही
बहुत दूर नहीं


15.7.05 © मोहन राणा


Thursday, July 14, 2005

गरमी गरमी

चीखती हुई कुछ बोलती चिड़ियाँ
लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता

यह एक चलता हुआ घर
भागती हुई सड़क पर
यह एक बोलती खामोश दोपहर.




14 जुलाई 05 © मोहन राणा

सवाल


सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता

विस्मृति के झोले में

और वह बेमन देता जबाव
अपने काज में लगा
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो


जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा
मैं सच को
वह समझने वाली बाती नहीं
कि समझा सके कोई सच,
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में
कि आगे कोई मोड़ ना हो
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
किधर जाता है यह रास्ता,


समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता
कि सबकुछ
बस यह पल
हमेशा अनुपस्थित


12 जुलाई 2005 © मोहन राणा


Wednesday, July 06, 2005

सन्नाटा

बाहर बिल्कुल सन्नाटा है, सुनाई देता.

अवाक


पिछले रविवार को शहर के बाहर एक नहर के किनारे टहलने चले गए, चमकती धूप में हरियाली
उनींदी , अपने ही पद्चाप अजनबी ध्वनित होने लगे कुछ देर चलने के बाद
कभी कोई बगुला कुछ सोच कर उड़ पड़ता छोड़कर बेचैनी पानी की हरित सतह पर
नीले रंग के ड्रैगनफ्लाई मंडराते यहाँ वहाँ बैठते...उँची घास पर
रास्ते का कोई छोर नहीं दिखता, गंतव्य क्या और कहाँ है यह भी नहीं मालूम
बस हम चलते चले गए- सुंदर और शांत, जहाँ पानी और रोशनी की अतरंगता
में समय अवाक ....

धूमकेतू

धूमकेतू से टकरा कर हमने क्या जाना
बदली नहीं दिशा उसकी गति उसकी

बच्चों की तरह उछले हम
बेचैन खोलते खिड़की दरवाजों को
अशांत मौसम में टटोलते अपनी स्थिरता को
होते चकित अपने ही पैरों को देख अचानक,
पर वह चलता गया चलता
फुंफकारता अंतरिक्ष के तिमिर में
बर्फानी फुंफकार
अदृश्यता के व्योम में

क्या जाना
हमने क्या जाना
कल का उत्तर
आज का प्रश्न



5.7.05

Monday, June 20, 2005

हिन्दी

'बिग ब्रदर' को भी हिन्दी आती है पर मशीनी हिन्दी
उसे आती है हिन्दी पर

वो हृदयहीन है !
मुझे मालूम है
वह रक्तहीन है
हमारे ही झूठों से जीवित है
हमारी ही धड़कनों में छुपा
हमारे ही कानों से सुनता
हमारी ही आँखों से देखता
हमारे ही स्पर्श से छूता
उसे हिन्दी आती है
ना उसमें कोई व्याकरण की
ना मात्रा की गलती
जरा भी चूक नहीं
जरा भी हिचकिचाहट नहीं


20.6.05 © मोहन राणा

Tuesday, June 14, 2005

पत्थर बाबा

पत्थर बाबा

यह कहानी कब कहाँ और किसने शुरू की यह अपने आप में इस कहानी की तरह ही एक पहेली है,
पत्थर बाबा तुंगनाथ की बर्फीली बादलों से ढंकी चोटी के पास रहते थे, उस उँचाई पर पहुँचना आसान नहीं था ,
संकरी पथरीली पगडंडी पर बरसों से कोई जाता नहीं दिखता . सीधी चढ़ाई फिर एक छोटी सी चौरस जमीन - वहीं पर वे रहते थे,
वे दिखने में कैसे थे, कौन थे किसी को नहीं मालूम!

न वे कभी खुद उतर कर आते. वहाँ कोई रहता है यह सभी मानते थे क्योंकि हर सुबह नियमित घंटी कुछ देर तक बजने की आवाज सुनाई देती थी,

कभी कभी कोई बर्फीली ढलान पर चलता भी दिखाई देता था पर दूरी के कारण उसकी पहचान मुश्किल थी क्योंकि उँची ढलानों पर पहाड़ी बकरियाँ भी रहती थीं.

उनका नाम पत्थर बाबा यूँ पड़ा कि सीधी चढ़ाई के बाद जो भी उनकी झोपड़ी के पास पहुँचता उन्हें पत्थर मार कर बाबा भगा देते.


कई लोग पहाड़ की चढ़ाई और पत्थरों की वर्षा के डर से उधर जाते ही नहीं . बादलों और कोहरे के कारण लोग उस पहाड़ पर रास्ता भी भटक जाते ये भटके हुए लोग बाद में किसी तरह से लौट आते या लोग जाकर उन्हें तलाश लेते पर कुछ कभी नहीं मिल पाते- कभी उस ओर आवाजें सुनाई देतीं तो लोग कहते ये आवाजें मदद की पुकार हैं भटके हुए लापता लोगों की हैं .
पर फिर भी जो कुछ जिज्ञासु पत्थर बाबा के दर्शन करने की कोशिश में जाते भी वे कुछ थकान और डर से बीच रास्ते से लौट आते , कुछ साहसी जिद्दी किस्म के लोग पहुँचते भी उनकी झोंपड़ी के पास तो एक दो पत्थर खाकर लौट आते, दिलचस्प बात यह थी कि पहाड़ से उतरते ही उन्हें कुछ याद नहीं रहता कि वहाँ उन्होंने क्या देखा बस वे दिखाते पत्थरों से लगी चोट - कुछ समय बाद उनकी चोट के निशान भी अपने आप गायब हो जाते

पर इस तरह पत्थर बाबा की कहानी की पुष्टि होती रहती. वे डर और जिज्ञासा का कारण थे. जैसे सच जो भयभीत भी करता है गुस्सा भी दिलाता है पर उत्तर भी देता है.

पर कभी कभी सालों में कोई एक लौट कर नहीं आता वहाँ से, उस पर पत्थर भी गिरते पर उसे पत्थर लगते ही नहीं ... कुछ लोगों का मानना है यह ना लौटने वाले ही फिर पत्थर बाबा बन जाते हैं.






मोहन राणा , 14 जून 2005

Monday, May 30, 2005

आता हुआ अतीत

आता हुआ अतीत,
भविष्य जिसे जीते हुए भी
अभी जानना बाकी है

दरवाजे के परे जिंदगी है,
और अटकल लगी है मन में कि
बाहर या भीतर
इस तरफ या उधर
यह बंद है या खुला !
किसे है प्रतीक्षा वहाँ मेरी
किसकी है प्रतीक्षा मुझे
अभी जानना बाकी है

एक कदम आगे
एक कदम छूटता है पीछे
सच ना चाबी है ना ही ताला


30 मई 2005 © मोहन राणा

Monday, May 23, 2005

छतरी

मैं छतरी ले कर निकला था पर शहर के पास पहुँच कर उसे कार में ही छोड़ दिया, यह सोच कर कि धूप है और बादल अभी दूर ही हैं.. पर यह भी बात मन में आई कि छतरी यहाँ तक साथ ले आया तो बारिश अब होगी ही. पर एक आवाज बोल पड़ी कोई बात नहीं रहने हो उसे.
काश छतरी साथ ले आता मैंने सुपरमार्केट से निकलते हुए सोचा, झड़ी लगी हुई थी, पर मैं रुका नहीं भीगते हुए चल पड़ा कुछ आगे जाकर एक दुकान की चौखट पर रुक गया, बस थोड़ी के लिए यह रुक जाय कार तक पहुँचने भर के लिए.. और जैसे उसने मेरी बात सुन ली वह कुछ रुक गई और मैं कुछ ही देर में कार तक पहुँच गया.
फिर वह चालू हो गई तेज हो गई, बौछारों में ओला वृष्टि भी आरंभ हो गई घर के सामने पहुँचते पहुँचते.
एक बार फिर छतरी हाथ में इस बार ओलों की बौछार को संभालती, बस पाँच कदम दरवाजे तक.

Sunday, May 22, 2005

रविवार

सुबह से बारिश हो रही है बीच में रुक गई थी पर अब उसकी झड़ी लगी है, सफेद रोशनी में घनी हरियाली
कुछ अजीब सी लग रही है जैसे वह कृत्रिम हो पर उसकी पुष्टि कैसे हो कोई तथ्य भी नहीं ..
20 तारीख को सालाना बाथ संगीत मेला शुरु हो गया, विक्टोरिया पार्क में हर साल की तरह भीड़ थी ,कुछ कम ,पर थी.
लोग अपने साथ छोटे शामियाने भी ले आए, दरियाँ बिछा कर खाने पीने में लगे थे पार्क के भीतर पुलिस और एम्बुलेंस की गाड़ियाँ भी एक ओर तैयार खड़ी थीं क्योंकि
बड़ी तदाद में नौजवान थे और पीने के बाद लड़ाई झगड़ा और मनमर्जी की हरकतें इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं, टोनी ब्लेयर को आठ साल बाद अब जाकर होश आया है कि अंग्रेजी समाज की हालत क्या हो गई है और बिगड़ती जा रही है..
बहरहाल तो दस बजे तक बाथ फिलॉमॉनिक शास्त्रीय संगीत सुनाता रहा और फिर जिसका सबको इंतजार था.. दस मिनट की आतिशबाजी, धमाकों के साथ अँधियारा गीला आकाश रंग बिरंगे जलते फुहारों से चमक उठता, कभी तालियाँ कभी सामूहिक किलकारी भरा आश्चर्य.. और फिर एक वापसी अंधियारे कोलाहल की, वापसी में अँधरे में अपना रास्ता टटोलती लड़खड़ाती आवाजें टूटती अधूरे शब्दों में .. मोबाइल फोन पर बात करता कोई कहता "...हाँ यहाँ बहुत सारे लोग हैं.."
पुलिस की वैन में दो पुलिस वाले एक नौजवान को धकलते, आज उसकी रात थाने में ही बीतेगी, मैंने सोचा और यह भी देखा कई और भी वहाँ आसपास मँडरा रहे थे जैसे उनका भी मन हो पुलिस के साथ दो बात करने का ..

Wednesday, May 18, 2005

जो देखा भूलने से पहले

पाँच मिनट

पाँच मिनट हैं आधी रात होने में, और फिर और एक नया दिन. कल शाम नेहरू केंद्र लंदन में अशोक वाजपेयी का कविता पाठ सुनने गया... पर उस पर फिर कभी शायद.
बस अभी एक ब्लोग पढ़ा http://riverbendblog.blogspot.com/ और सोचता हूँ... क्या होने वाला है... दुनिया में

Monday, May 16, 2005

दोपहर

अच्छी धूप थी सुबह पर दोपहर होते बादल जमा हो गये, रुक गये तो बरसना ही था थोड़ी बारिश हुई अब एक सफेदी पूरे आकाश पर चढ़ी हुई है, बस रोशनी है ढलता हुई दिन है...कम से कम यह जलता हुआ प्यासा दिन तो नहीं है!


मैसेंजर पर कहानीकार तेजिंदर शर्मा से कविता के लुप्त होते पाठकों के कारण पर बात करने लगे..

Tejinder says:
दर असल हिन्दी कविता पाठक और श्रोता दोनों से दूर हो गई है
Tejinder says:
एक कारण ये भी है
Tejinder says:
पहले लोग कविता उद्दृत किया करते थे
Tejinder says:
अब फ़िल्मी गीत करते हैं
namaste says:
पर जो पुस्तक बेच रहे हैं बेचते रहेंगे
Tejinder says:
पुस्तक बिकती है लेकिन कितनी
namaste says:
वे हमेशा हरे भरे रहेंगे
Tejinder says:
और कितने लोग पढ़ते हैं
Tejinder says:
क्या प्रतिक्रिया मिलती है
Tejinder says:
ये क्ई सवाल हैं
namaste says:
कविता क्या केवल उद्धरण के लिए लिखी जाती है
Tejinder says:
देखिये हम जो भी लिखते हैं अगर वो केवल लेखक के लिए है
Tejinder says:
तो बहुत सीमित चीज़ है
Tejinder says:
कविता के लिए संवाद ज़रूरी है
Tejinder says:
आपकी बात पढ़ने वाले तक पहुंचनी ज़रूरी है
namaste says:
पर इस तरह के सवाल भारत में कोई किसी पेंटर से तो नहीं करता
namaste says:
ना ही किसी फूहड़ फिल्म बनाने वाले से
namaste says:
मध्य वर्ग को 25-50000 रुपए की
Tejinder says:
सर लेखक अपनी रचना लिख कर प्रकाशक के पास ले जाता है, ताकि लोग उसे पढें
namaste says:
अमूर्त पेंटिंग समझ आ जाती है
Tejinder says:
क्या इसके अतिरिक्त और कोई कारण है
Tejinder says:
अमूर्त पेंटिंग बना कर पेंटर टांग देता है
namaste says:
पर 150 रूपए का कविता संग्रह नहीं
Tejinder says:
अगर किसी को पसंद आगई ठीक नहीं तो टंगी है
Tejinder says:
मैं आपसे पूछता हूं यदि आपकी कविता मुझ से संवाद नहीं करती तो मैं उसपर दस रूपये भी क्यों खर्च करूं
Tejinder says:
कविता आपने अपने लिए लिखी है
Tejinder says:
मैं क्यों खरीदूं
namaste says:
कविता मैंने लिखी पर सोचा ही नहीं कि किस के लिए
Tejinder says:
फिर यह शिकायत क्यों कि कोई खरीदता नहीं
namaste says:
क्यों कि बेचना मेरा काम नहीं है
namaste says:
उसकी मुझे कोई शिकायत नहीं है
namaste says:
यह तो प्रकाशकों की शिकायत है
Tejinder says:
देखिये प्रकाशक व्यापारी है
Tejinder says:
वोह तो यह कहेगा ही
namaste says:
मैं तो हनारे समाज की सांस्कृतिक
namaste says:
हालात पर अपनी राय व्यक्त कर रहा हूँ
Tejinder says:
उस पर पहले हम ध्यान दें कि हिन्दी कौन सी पीढ़ी पढ़ सकती है
namaste says:
इग्लैंड में कविता के प्रेमी कम ही हैं
Tejinder says:
उस पीढ़ी को आपकी कविता समझ ना अये तो वो क्या करे
Tejinder says:
मैं नहीं जानता
Tejinder says:
इंगलैण्ड की कविता स्थिति को
namaste says:
यह समझ वाली बात तो मुझे खुद समझ नहीं आती
Tejinder says:
मोहन जी
Tejinder says:
जब लेखक अपने आप से बात करता है, तो पाठक को कैसे पता चले कि उसने क्या बात कब कर ली
namaste says:
मेरे कुछ ब्लोग भी छापें
Tejinder says:
भेजियेगा
namaste says:
कविता के साथ
Tejinder says:
यह एक नई ट्राई होगी
Tejinder says:
मैं इसके लिए तैयार हूं
namaste says:
कुछ नहीं बस मौसम और ज्यादातर बारिश के बारे में
namaste says:
http://wordwheel.blogspot.com/
Tejinder says:
ब्लॉग छापना एक नई परंपरा बनेगा
namaste says:

namaste says:
इरादा तो हमारा ऐसा ही है
Tejinder says:
अच्छा इरादा है
namaste says:

Tejinder says:
सर जी कल का प्रोग्राम कितने बजे है
namaste says:
देखिए आपने मुजे चुनौती दी है आज
namaste says:
कि नयी पीढ़ी कविता के नाम पर पैदल है
Tejinder says:
न भाई कोई चुनौती नहीं
namaste says:
उसे कुछ समझ नहीं
Tejinder says:
मैं यह नहीं कहता
namaste says:
कविता की
Tejinder says:
मैं यह कहता हूं कि नई पीढ़ी हिन्दी के मामले में पैदल है
Tejinder says:
उस पर कविता
namaste says:
अब लगता है उसमें जागृति लाने का समय आ गया
Tejinder says:
करेला और नीम चढ़ा
namaste says:
वे संवेदनशील हैं
namaste says:
पर कोई उन्हें इशारा कर दे
Tejinder says:
हो सकता है
namaste says:
पर देखिए कवियों की संगत खतरनाक होती है
Tejinder says:
सर जी दोनो बेटे आ गये
Tejinder says:
उनके लिए नाश्ता बनाना है
Tejinder says:
सर जी कल का प्रोग्राम कितने बजे है
namaste says:
अच्छा है आप कहानी लिखते हैं
Tejinder says:
होहोहोह
namaste says:
कविता तो जोगियों का रास्ता है
Tejinder says:
जी
namaste says:
नमस्ते कल मिलेंगे

सोमवार

पिछले हफ्ते के आंरभ में खराब मौसम और तेज हवा चलने की संभावना सुनी थी , हवा तो कुछ तेज थी और थोड़ी बारिश भी हुई पर सप्ताह के अंत में धूप अच्छी रही, रविवार को मैं बगीचे के एक कोने में जमीन की खुदाई करता रहा, हमारा विचार है कि उस जगह को समतल कर वहाँ एक लकड़ी का सायबान बनाएँगे.

शनिवार को माइकेल पेलिन ने शहर में हॉलबॉर्न संग्रहालय में एक नई इमारत का उदघाटन किया, हमें एक निमंत्रण आया तो मैं भी सपरिवार चला गया, मौसम अच्छा था एक तस्वीर भी माइकेल पेलिन के साथ हो गई उसने कहा
... ha a north pole smile ! (उसकी एक किताब का नाम है Pole to Pole ,1992) यूँ तो वह अभिनेता (मोंटी पाइथन ) के रूप में जाना जाता है पर इधर हाल के बरसों में बीबीसी ने उसे यायावर भी बना दिया!

अभी फिर कुछ धूप है, थोड़ी हवा भी, पेड़ कुछ सुस्ती के साथ हरियाली को झूला दे रहे हैं, सोमवार जो है आज !
16.5.05

Living in Language

Last month I had an opportunity  to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...