Tuesday, August 31, 2010
देखना जो दिखता नहीं
देखना जो दिखता नहीं
अपने नाप का चश्मा लगाके भी,
मन की आँखों का मिलता नहीं
बिना खुले दिखता नहीं अगोचर
परिचित लौकिकता में,
तैयार हूँ आखें बंद किये
आश्र्चर्य देखने को
Saturday, August 28, 2010
Friday, August 27, 2010
पुराने दिल्ली के स्टेशन बाहर
{The Taoist sage has no ambitions, therefore he can never fail. He who never fails always succeeds. And he who always succeeds is all- powerful}
चंपारण से कई घंटो की सत्याग्रह एक्सप्रेस यात्रा के बाद
जनसेवक जी बड़ी मुश्किल से कमर सीधी कर प्लेटफार्म पार कर सके
बाहर बाबा लाउत्से अपने तोते के साथ बैठे थे
टैस़ला से जानें अपना भविष्य, मुड़े हुए गत्ते पर बाकी मिट गया था,
प्यार से पुचकारते टैस़ला को दाना चुगाते
एक दाना वे खुद भी चबा लेते,
जनसेवक जी अपना झोला झाबा संभालने वहाँ रुके
कि लाउत्से ने आवाज दी
अरे ओ जनसेवक कहाँ जाता है बच्चा
ले जाने ले अपना भविष्य टैस़ला से
काली के युग में हाहाकार
बतायेगा तुम्हारी महादशा
जान ले इससे पहले हो जाए तुम्हारी लालबत्ती,
जनसेवक जी पान की पीकों से रंगीन पौधे के गमले की ओर छड़ी उठा के बोले
नहीं भय्या जल्दी ही
अपनी तो बत्ती जाने कब से फ्यूज़् ही है
©27/8/10
Thursday, August 26, 2010
पूर्वपीठिका
Wednesday, August 18, 2010
दोपहर के बीच गुमनाम दिन
कविता के लिए कोई नया शब्द नहीं
मेरी पड़ोसन ने संगीत का स्वर अपने मकान में तेज कर दिया, पिछली कई मर्तबा से भी तेज
मकान की दीवारें अचानक जैसे अपनी गहरी तंद्रा से जाग उठी यह कैसा ध्वनि तंत्र इस पड़ोसन ने आज चालू कर दिया,
मैं संग्रह के ड्राफ्ट में उलझा बैठा हूँ वह शराब पी के ऊँची आवाज में संगीत सुन रही है- कैसे कोई सुन सकता है मदहोशी में... मेरी खीज धीरे धीरे बढ़ती गई.. आखिर मुझसे रहा नहीं गया.
बाहर सड़क पर पार्क कारों और अकेली खंबो की जगमगाहट के कोई नहीं दिखता, रविवार की शाम है.
मैंने थोड़ा साहस करके दरवाजे की घंटी बजाई.. पर भीतर से संगीत के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया..
आखिर में लड़खड़ाती सी वह दरवाजे पर आई , मैंने उसे कहा.. जरा.. कृपया संगीत कम कर दें.... अह ओके, मदहोश स्वर में उसने कहा और दरवाजा बंद कर दिया..
मैं उम्मीद के साथ फिर डेस्क पर..
पर अब संगीत जैसे कुछ और उद्वेलित हो गया.... आखिर फिर कुछ देर तक अपने ही आत्मविवाद से गुस्सा कर मैं फिर उसके दरवाजे की ओर बढ़ गया..
इस बार एक खुरदरी सफेद दाढ़ी वाला आदमी दरवाजे पर उपस्थित हुआ
.. ये संगीत जरा कम कीजिये ना
.. नहीं मैंने कम कर दिया है वह खीज के बोला..
मेरे घर से आप आ कर सुनें कितना तेज है दीवारें कांप रही हैं, मैंने उसे आमंत्रित किया
नहीं,उसका स्वर कुछ उत्तेजित हो गया, मैंने कम करना था कर दिया.
संगीत कम करिये जरा मैं कुछ लिख रहा हूँ,
क्या समय हुआ वह बोला ये कोई लिखने समय है क्या..
मैं लेखन ही करता हूँ और 11.45 हुए हैं.. प्रतिवाद करते मैं बोला
ये लिखने का समय नहीं है सुबह लिखना अचानक वह सलाह के मूड में आ गया
अब सो जाओ..
...ये संगीत कम .. मेरा वाक्य अधूरा ही रह गया
नहीं..कहते उसने दरवाजा बंद कर दिया. संगीत डेढ़ बजे रात तक चलता रहा. मैंने कंप्यूटर बंद कर दिया... कुछ सोचने की कोशिश, सोने की भी..
कविता के लिए कोई नया शब्द नहीं मिला. मैंने उसे अँधेरे में कहीं रख दिया और आशा कि दिन के उजाले में उसे खोजूँगा.
आशा एक बोझ है जरूरी बोझ, और हमेशा उसके अनुपस्थित हो जाने का भय कहीं, समानंतर उपस्थित.
सपने में मैंने देखा
एक औरत अटकलें लगा रही है बीस बिलयन पाउंड में ग्यारह शून्य होते हैं..ग्यारह शून्य.. शून्य
©
मकान की दीवारें अचानक जैसे अपनी गहरी तंद्रा से जाग उठी यह कैसा ध्वनि तंत्र इस पड़ोसन ने आज चालू कर दिया,
मैं संग्रह के ड्राफ्ट में उलझा बैठा हूँ वह शराब पी के ऊँची आवाज में संगीत सुन रही है- कैसे कोई सुन सकता है मदहोशी में... मेरी खीज धीरे धीरे बढ़ती गई.. आखिर मुझसे रहा नहीं गया.
बाहर सड़क पर पार्क कारों और अकेली खंबो की जगमगाहट के कोई नहीं दिखता, रविवार की शाम है.
मैंने थोड़ा साहस करके दरवाजे की घंटी बजाई.. पर भीतर से संगीत के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया..
आखिर में लड़खड़ाती सी वह दरवाजे पर आई , मैंने उसे कहा.. जरा.. कृपया संगीत कम कर दें.... अह ओके, मदहोश स्वर में उसने कहा और दरवाजा बंद कर दिया..
मैं उम्मीद के साथ फिर डेस्क पर..
पर अब संगीत जैसे कुछ और उद्वेलित हो गया.... आखिर फिर कुछ देर तक अपने ही आत्मविवाद से गुस्सा कर मैं फिर उसके दरवाजे की ओर बढ़ गया..
इस बार एक खुरदरी सफेद दाढ़ी वाला आदमी दरवाजे पर उपस्थित हुआ
.. ये संगीत जरा कम कीजिये ना
.. नहीं मैंने कम कर दिया है वह खीज के बोला..
मेरे घर से आप आ कर सुनें कितना तेज है दीवारें कांप रही हैं, मैंने उसे आमंत्रित किया
नहीं,उसका स्वर कुछ उत्तेजित हो गया, मैंने कम करना था कर दिया.
संगीत कम करिये जरा मैं कुछ लिख रहा हूँ,
क्या समय हुआ वह बोला ये कोई लिखने समय है क्या..
मैं लेखन ही करता हूँ और 11.45 हुए हैं.. प्रतिवाद करते मैं बोला
ये लिखने का समय नहीं है सुबह लिखना अचानक वह सलाह के मूड में आ गया
अब सो जाओ..
...ये संगीत कम .. मेरा वाक्य अधूरा ही रह गया
नहीं..कहते उसने दरवाजा बंद कर दिया. संगीत डेढ़ बजे रात तक चलता रहा. मैंने कंप्यूटर बंद कर दिया... कुछ सोचने की कोशिश, सोने की भी..
कविता के लिए कोई नया शब्द नहीं मिला. मैंने उसे अँधेरे में कहीं रख दिया और आशा कि दिन के उजाले में उसे खोजूँगा.
आशा एक बोझ है जरूरी बोझ, और हमेशा उसके अनुपस्थित हो जाने का भय कहीं, समानंतर उपस्थित.
सपने में मैंने देखा
एक औरत अटकलें लगा रही है बीस बिलयन पाउंड में ग्यारह शून्य होते हैं..ग्यारह शून्य.. शून्य
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Wednesday, August 11, 2010
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