आज सुबह कागजों को उलटते पुलटते यह कविता मिल गई.
झपकी
नंगे पेड़ों पर
उधड़ी हुई दीवारों पर
बेघर मकानों पर
खोए हुए रास्तों पर
भूखे मैदानों पर
बिसरी हुई स्मृतियों पर
बेचैन खिड़कियों पर
छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,
हल्का सा स्पर्श
ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,
उठता है मंद होते संसार का स्वर
आँख खुलते ही
3.2.05 © मोहन राणा
Friday, December 16, 2005
Saturday, December 10, 2005
आलू बुखारा
बगीचे में आलु बुखारे का पेड़ कल लगाया, पता नहीं वह ठंड को झेल पाएगा, उसमें जड़ें ही नहीं थी!!
पत्ते तो थे ही नहीं...बच गया तो कभी उसमें जामुनी रंग के फल आएँगे.
पत्ते तो थे ही नहीं...बच गया तो कभी उसमें जामुनी रंग के फल आएँगे.
Sunday, December 04, 2005
भंवर
Friday, December 02, 2005
चश्मा
Subscribe to:
Posts (Atom)
Living in Language
Last month I had an opportunity to attend the launch of "Living in Language", Edited by Erica Hesketh. The Poetry Translation Cen...
-
चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन
-
Ret Ka Pul | Revised Second Edition | रेत का पुल संशोधित दूसरा संस्करण © 2022 Paperback Publisher ...