Tuesday, June 24, 2008

फिर कब आओगे

मैं लौटता हूँ हर शाम फिर इस कुर्सी पर
भरने उड़ान अपने अंतरिक्ष की ओर
वहाँ मैं खाली कर सकता हूँ पर्चियों से भरे झोले को
वहाँ सब कुछ उपस्थित है
नया पुराना एक साथ
वहाँ वर्तमान चाकू की धार नहीं
अंतहीन विस्तार है

कि तभी कोई आवाज
हर सुबह
फिर कब आओगे


© मोहन राणा