Thursday, July 17, 2008

वो उड़ चला बादल बन




















यह किस तरह की बारिश
जो रोज होती है अलग अलग समय
कौन पौंछता होगा उसके चेहरे को,

टकराते टूटते संभालते अपने आप
को
मिटाते किसी आत्मलाप को किनारों से
पुरातीत सीत्कार के साथ
पर फिर एक पल झिझक
जैसे मुड़कर कोई देखता कुछ याद कर


जो समुंदर कहीं नहीं पहुँच पाया वो उड़ चला बादल बन,
अक्सर ऐसा ही होता है
पर कुछ होते हैं जो
शायद ... बन जाते हैं आकाश


17.7.08
©मोहन राणा

Saturday, July 12, 2008

अपील

अभी यह पहला मसौदा है,

यह केवल ईश्वर के लिए है
कृपया पाठक बेचैन ना हों
पर कुर्सी से लगी पेटी अभी उतारें ना
जब तक खत्म ना हो यह यात्रा
इस जहाज के पंख कभी भी गिर सकते हैं अपने आप


ईश्वर
हिन्दी का लेखक कभी बूढ़ा ना हो अस्वस्थ ना हो
उसे माँग ना करनी पड़े इलाज के पैसों के लिए
रहने के लिए एक घर के लिए
बच्चों की पढ़ाई के लिए
उसके जीवन में कोई जरूरतें ही ना हों

पर वह दिगंबर नहीं हो सकता
ना वह बादलों में रह सकता है
उसे एक खिड़की तो चाहिए अपने घरोंदे में
और एक चोर दरवाजा भी
जो झूठ की दुनिया में खुलता हो


वह गंगा में नहीं छलांग लगा सकता
वो पत्थर हो जाएगी

शर्म से वह अभिशप्त तालाब में नहीं डूब सकता
नहीं है उसके पास उत्तर यक्ष प्रश्नों के

उसे चुल्लू भर पानी चाहिए
गरमी इतनी कि पसीना भी सूख जाता है,
लगातार बारिश के बावजूद
आकाश प्यासा है
धरती के पैरों में फटी बिवाई -

उसे अँधेरी कोई जगह चाहिए जहाँ
अंधेरा भी अदृश्य हो जाय

सभी दरवाजों को खटखटाने के बाद
जो खुलते एक ओर बंद होते दूसरी ओर,
यह अपील ईश्वर के लिए है
विवश होकर
आपका
हिन्दी लेखक

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...