Tuesday, March 17, 2015

नक्शे में रेखा

जो छूटा वो अब दूर
जो पास आता वो भी बहुत दूर
फिलहाल अपने दिन रात को बदलना होगा
कुर्सी को झुका नींद की करवट में गर हो सके तो,
दो देशांतरों के बीच सीमा पार करते जहाज मीटर और फीट ऊँचाई बताता
खिसकता है नक़्शे में रेखा पर

मैंने देखा वह
जिया वह
कि कह सकूँ चुप रह

गरमियां आयेंगी यहाँ  जो याद नहीं रह पातीं
अपने से हमेशा बहुत दूर,
मैंने छुआ है नक़्शे में किसी और रेखा में
तपती दोपहर चलती गरम हवा की भी होती है अपनी उदासी
सरसर पीपल के झोंकों में बची छाया तल बैठे,
कि कभी लगता एक चमक टूट कर गिरेगी मुझ पर आकाश से



© मोहन राणा 

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...