Tuesday, July 25, 2006

सूरजमुखी का अँधेरा


दोपहर की चटख धूप में उसके सामने खड़ा मैं कुछ देर तक उसे घूरता रहा पहले कुछ आश्चर्य से फिर जिज्ञासा से, फिर एक प्रश्न के साथ -
इतने उजाले के बावजूद भी, यह अँधेरा कैसे ?
उसके बाद जैसे अपने ही मूड से संपर्क कुछ देर के लिए टूट गया.

©26/7/06

Tuesday, July 11, 2006

किनारा



बहुत दूर तैरती नाव

कोई जहाज

कुछ बहुत दूर तैरता लहरों के पार

आती जो पास मुझे लपकने हर उफान में

जैसे कोई निराशा

लौट जाता समुंदर हार कर किसी और छोर को

दोपहर बाद,

हर दिन मैं ताकता उस बहुत दूर को

देखता जैसे अपने आप को बहुत दूर से

और पहचान नहीं पाता


7.4.2002 सज़िम्ब्रा, पुर्तगाल

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...