Sunday, September 09, 2007

हर पहचान में





पेंच जहाँ भी पड़ती नजर

हर दिशा हर जगह हैं,

खिड़की दरवाजों दीवारों मेज

और जिस कुर्सी पे बैठा हूँ उस पर भी

पूरे घर में पेंच लगे हैं

वे संभाले हैं इसे गिरने से

सारी सड़क सारी दुनिया में पेंच लगे हैं

वे संभाले हुए हैं निकटताओं में दूरियों को,

नाना रूप धारी वे उपस्थित हैं हर पहचान में


मुझ पर भी लगे हैं पेंच भीतर और बाहर

बाँधे हुए मुझे अपने आप से

किसी धीमी आवाज से

और इन शब्दों से,

उनके झूठ का घाव बचाए हुए है मुझे व्याकरण के कारावास में सच से,

बस किसी अभाव को कुरेदता

खोज में हूँ किसी पेचकश की

कि खोल दूँ इनको

कि देखूँ

कि संभव है आकाश का नीला रंग

बिना ऑक्सीजन के भी

दीवार पर पेंच से जड़ी तस्वीर में

13.10.2003



"देखा मुखौटा किसका " कविता संग्रह" से ©

5 comments:

बसंत आर्य said...

इस कविता मे भी एक पेच है. बढिया लगी मुझे. कही इस प्रतिक्रिआ मे भी पेच न हो

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी रचना है।

Anonymous said...

The poem is very good. Leave a message how the whole world be combined by a screw.

अजित वडनेरकर said...

अच्छी कविता है मोहन भाई...और तितली वाला शब्दचित्र हमें बहुत पसंद आया...

१८९-९० के दौर में मैं नवभारत टाईम्स , दिल्ली में था। जयपुर नभाटा में हड़ताल हो जाने से हम कुछ साथी दिल्ली आफिस में काम करने लगे थे।यूं भी दिल्ला मेरा लगातार आना होता था। हबीबभाई (अख्तर)समेत कई लोगों से आज भी संवाद बना हुआ है। संदर्भ के लिए, कमलकांत बुधकर मेरे मामाश्री हैं। मुमकिन है इसके बावजूद आपकी स्मृतियों में मैं न मिलूं....आप आजकल कहां है, विदेश में या लौट आए हैं।
शुभकामनाएं ...

Unknown said...

I really liked ur post, thanks for sharing. Keep writing. I discovered a good site for bloggers check out this www.blogadda.com, you can submit your blog there, you can get more auidence.

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