Monday, November 30, 2009

सवाल नहीं है आज

सवाल नहीं है आज सुनकर
उठता है सवाल
इस बात पर,
मैं अब आकाश को नहीं ताकता पैरों को घूरता हूँ
मुझे करनी थी प्रतीक्षा उनकी इस पल यहीं
इस एकांत में इस कोलाहल में इस चुप्पी में अपने भीतर इस चीख में
यहीं इस खुशी में इस क्रोध में इस उदासीन समय की करवट में
यह खरोंच ऊँगली पर
धीमे से धड़कती है पीड़ा उसके आसपास,
कहीं चला तो नहीं गया मैं कहीं और आकाश को ताकते
मेरी अपनी छाया गुम है इस एकाएक जवाब पर
मेरा प्रश्न क्या आज सवाल हैं

दिन करता रहा प्रतीक्षा
और प्रश्न जैसे आकर जा भी चुके
तो क्या दिन बीत गया
सुबह हो गई
फिर यह शाम कैसी,
जवाब जिनके लिए नहीं शब्द अब मेरे पास
सवाल नहीं है आज

30.11.09


© मोहन राणा

Saturday, November 07, 2009

सबसे ऊँची छत

सबसे ऊँची छत से क्या बादल दिखाई देते हैं
क्या वहाँ भी होती है बारिश
क्या वहाँ भी बहते हैं पतझर के आँसू गिरती हुई बूँदों में
क्या वहाँ भी होती है दोपहर सुबह और शाम के बीच....
क्या वहाँ दुनिया को बनाने वाला कुम्हार रहता है
मिट्टी की बनी यह दुनिया टूट गई है सबसे ऊँची छत से गिर कर
क्या ठीक कर सकता है वह इसे.

©मोहन राणा

Friday, November 06, 2009

जहाँ बादल सुनाते हैं संदेश


आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्
तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः।
वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्ण : शोभाम्
शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्।।
_ कालिदास, मेघदूत





फोटो - मोहन राणा

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