सवाल नहीं है आज सुनकर
उठता है सवाल
इस बात पर,
मैं अब आकाश को नहीं ताकता पैरों को घूरता हूँ
मुझे करनी थी प्रतीक्षा उनकी इस पल यहीं
इस एकांत में इस कोलाहल में इस चुप्पी में अपने भीतर इस चीख में
यहीं इस खुशी में इस क्रोध में इस उदासीन समय की करवट में
यह खरोंच ऊँगली पर
धीमे से धड़कती है पीड़ा उसके आसपास,
कहीं चला तो नहीं गया मैं कहीं और आकाश को ताकते
मेरी अपनी छाया गुम है इस एकाएक जवाब पर
मेरा प्रश्न क्या आज सवाल हैं
दिन करता रहा प्रतीक्षा
और प्रश्न जैसे आकर जा भी चुके
तो क्या दिन बीत गया
सुबह हो गई
फिर यह शाम कैसी,
जवाब जिनके लिए नहीं शब्द अब मेरे पास
सवाल नहीं है आज
30.11.09
© मोहन राणा