Sunday, May 23, 2010

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रद्दी में गई लिफाफों में बदल गई कविताओं का
विशेष संग्रह यहाँ उपलब्ध है








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Saturday, May 01, 2010

मेरे पाँवों पर उगी है दूब

तुम दूर से मुझे देखो
तो दिखता हूँ पत्थर का बुत
नजदीक आ कर देखो
तो दिखता हूँ कंकड़ों का समझौता,

मेरे पाँवों पर उगी है दूब
ताजी बस अभी ही उगी.
हवा सीटियाँ बजाती
चुभोती है अपने नाखून मेरी देह में
और खुरचती है बारिश मेरी त्वचा,
मेरी नग्नता के भीतर से गुजरते हैं
कई आकाश और छायाएँ
लंबी घड़ियों से मुक्त कोई दोपहर
दिन को हटाती कोई शाम,
मेरे भीतर एक अधपकी रोटी है
तपा रही है धूप उसे
जाने कब से

हर दिन मैं याद करता हूँ अपने बारे में
भूल जाता हूँ
इच्छाओँ के नीचे ढकी हैं मेरी आँखें
जैसे बेलों के नीचे कोई दीवार उस दीवार पर हो सकते हैं
कई नाम
किसी जगह के दिशा संकेत,
कुछ मिटते निशान
कोई चिन्हा हुआ दरवाजा
मैं इन संभावनाओं पुष्टि नहीं कर सकता फिलहाल,

नहीं बोला वर्षों से
मैंने कोई शब्द
तुम नहीं सुन पाओगे मेरी आवाज
मैं भी नहीं सुन पाता
जाने किस शरद में पत्तों के साथ मेरे कान भी गिर गए

मेरे नजदीक आओ
लगाओ अपने कान मेरी छाती पर
शायद सुन पाओ धड़कन अपनी


14.12.1993 ©

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...