Thursday, April 07, 2011

कपड़ों से बाहर

शब्द उजास दलदल में
सहमे
हुए रास्तों की दिशा
मैं अपने कपड़ों से बाहर निकल जाना चाहता हूँ धूप का चश्मा लगा कर,
बंदर बाँट में बिल्लियाँ लड़ती रहती हैं
बंदर हँसता रहता है अपनी किस्मत पर
वह तो दरवेश सिफ़त है,
कचरे में पाई क्या वह सचुमच कविता ही थी
कि मैंने सुना था कुछ
उसे एक बार फिर मन में लिखते हुए,
वैसे सच क्या है
ना दिखे तो भ्रम
दिखे तो संशय होता है खुद पर ही,

हैडफोन डायोड और एंटेना
कानों में खामोश ध्वनि तरंगों में उपस्थित बोल पड़ी बीसवीं सदी


आशा ही है इस संशय का नाम
जिसे तमगे की तरह सीने से लगा रखा है
धरती भी नहीं चाहती यह बोझ उस पर गिरे.

© मोहन राणा

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