Friday, June 24, 2011

परसों का नाश्ता आज

समय पर सब कुछ होने की सलाह दी जाती
जल्दी क्या !
और मैं खुद ही देता हूँ
अपनी मोचों पर किसमत का मरहम लगाते हुए
पर तारीखें जैसे पहले से तय
बस याद नहीं कि क्या हो चुका
असावधान वर्तमान में हमेशा अतीत ही उपस्थित,
हाथ बाँधे सिर झुकाए. पर मैं कभी नहीं पहचान पाता.

हरे पेड़ भी भयभीत हैं उस बादल की छाया में
जो प्रकट होता है बेआवाज़,
मुझे बताने से क्या फायदा
आप खुद सुनना नहीं चाहते अपनी जुबानी
कि हजारों फीट से मिसाइल कहीं और ही गिराई जाती है,
सुबह आराम से चाय के साथ पढ़ते हुए
आज खा रहा हूँ परसों का नाश्ता


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Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays  "Liv...