होती रहती खटर पटर कभी बर्तनों की
कभी सामान की कभी कमरों में अपनी नींद और सुबह के हमजीवों की,
जब लोगों से कहता हूँ, कट रही है
वे हँसी छुपाते हैरान बन गंभीर कहते हैं अरे नहीं
कैसी बात
बात जो मैं अब तक ठीक से ना कह पाया
अब भी
'कबीरा कुंआ एक है. पानी भरे अनेक' !
सबको नहीं मिलता पानी फिर भी, मिलता भरम अनेक
मुझे तो आलसी भी मेहनती लगते हैंऔर झूठ बोलने वाले भी सच्चे
प्रकृति यह व्यक्त का खेल खूब करती है, भरमाती मनुष्य को
परिंदे तारों पर टँगे आसमा भूल गया
बादलों की बहक में,रास्ता किसी समुंदर की तलाश में
मैं खिड़की खोल भी दूँ फिर भी अँधेरा झिझकता है चौखट पर
कोने किनारों में सिमटता बाहर की रोशनी से विगत ही देख पाता हूँ
धूल पर झाड़न फेरता
देता हूँ जबरन हौसला गिर कर खुद को उठाते
निपट लूंगा जिंदगी के रोड़ों से,ये टोकते नहीं याद दिलाते हैं दोस्ती का अकेलापन
अन्ना हम तुम्हारे साथ हैं
मिर्च की पिचकारी आँखों में,
और थप्पड़ किसी नेता को,बुरे वक्त की निशानी कहते हैं बुजुर्ग चश्मे को ठीक करते
इन दांतों में अब दाने नहीं चबते हवा में मुक्के भांजते
बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पुलिसवाला पिचकारी मारता धरने की आँखों में जैसे छिड़कता हो कोई कीटनाशक दवा..
परीक्षा ले रहा धनतंत्र
पालथी छात्रों के धीरज की वे चीखते हुए आँखों को बंद नहीं रख पाते, खोल कर बंद नहीं कर पाते,
वही पिचकारी हाथ बन जाता एक कठपुतली हाथ थप्पड़ मारने के लिए,
उस उदासीन गाल पर असर नहीं होता पर छाप कहीं और पड़ती है पाँचों ऊँगलियों की, देखा मुखौटा किसका,
चेहरा अपना नाम बताते हुए
दण्डवत नमस्कारम इस धरती को, एक और दिन .
©मोहन राणा