यह वाकया उन्नीस सौ अस्सी का है उस वक्त में ग्यारवीं में पढ़ रहा
था. हमारे दिल्ली टेक्निकल स्कूल में विज्ञान के अलावा केवल तकनीकी विषयों
केंद्रित पढ़ाई होती थी मेरा मुख्य विषय इलैक्ट्रानिक्स था. अंग्रेजी के एक विषय को छोड़ कर
साहित्य की वहाँ कोई उपस्थिति नहीं थी मैं खुद भी काव्य साहित्य की दुनिया से बेखबर था पर स्कूल के परिसर में एक इमारत थी
जिसमें कभी दाराशिकोह का पुस्तकालय हुआ करता था उसका आधा हिस्सा बंद पड़ा
था और आधे भाग का उपयोग रसायन प्रयोगशाला के रूप में किया जा रहा था.
सर्दियाँ
अपने उतार पर थी और वसंत के निशान दिल्ली के कुँहासे में प्रकट होने लगे
थे. मैं स्कूल की बेंच पर बैठा धूप सेंक रहा था कि मेरी नजर जमीन पर पड़े
एक लिफाफे पर गई कोई मूँगफलियाँ खाकर छिलकों के साथ उसे भी वहीं फेंक गया
था. यह जानने कि उस पर क्या छपा है उठाकर देखा और उसे खोल कर जब फैलाया
तो उसमें कविता की किताब के दो पन्ने थे...यह मेरी पहली कविता की किताब थी. कविता ने मन में एक खिड़की खोल दी.
मैं उस आदमी की तलाश में हूँ जिसने वह ढाई सौ ग्राम मूँगफली खरीदी थी.
कभी कवि ने कविता लिखी कविता एक संग्रह में छपी किताब बिकी अनबिकी रद्दी में चली गई उसके पन्नों के लिफाफे बने, लिफाफे बिके, मूँगफली वाले से किसी ने मूँगफली खरीदी स्कूल की बेंच पर आराम से उन्हें खा चबा के छिलकों के साथ वह लिफाफा फेंक गया.
कुछ देर बाद एक हाथ उस कचरे की ओर बढ़ा, छपे अदृश्य हो गए शब्दों में फिर से जनम लिया कविता ने.