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अपने आपसे करता मेरा विवाद हो,
सोचता मैं कोई शब्द जो फुसाले दे
मेरे साथ चलती छाया को कुछ देर कि मैं छिप जाउँ किसी मोड़ पे,
देखूँ होकर अदृश्य अपने ही जीवन के विवाद को
रिक्त स्थानों के संवाद में.
26.11.05 © मोहन राणा
जैसे गिरे हुए पत्ते को उठा कर
कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं
वह किसी का हाथ
रूमाल में लिपटा,
वह खोया हुआ हाथ
उस हाथ ने कभी छुआ अपने जन्म को
और जाना अपने होने को,
उसने छुआ रोटी के टुकड़े को
प्रेम के स्पर्श को
और लिखा कुछ,
एक गर्म दिन
उसने टटोला हवा की उपस्थिति को,
बरसते हुए मानूसन को समेटा अंजलि भर
बादलों की गर्जना में हल्की सी सीत्कार समुंदर की,
उस हाथ ने कभी संभाला गिरते हुए को
खोजा खोए हुए को
टटोला अँधेरे में बत्ती को,
हाथ पकड़ा किसी का सड़क पार करते ।
मैंने तस्वीर में देखा
एक हाथ उठाए है रूमाल में लिपटे एक विक्षत हाथ को
जिसका नहीं कोई चेहरा
नहीं पहचान
कोई नाम,
आतंक से उपजे शोक में
कोई विलाप नहीं
शब्दों में मृतकों के लिए
Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...