Saturday, November 26, 2005
अपवाद
अपने आपसे करता मेरा विवाद हो,
सोचता मैं कोई शब्द जो फुसाले दे
मेरे साथ चलती छाया को कुछ देर कि मैं छिप जाउँ किसी मोड़ पे,
देखूँ होकर अदृश्य अपने ही जीवन के विवाद को
रिक्त स्थानों के संवाद में.
26.11.05 © मोहन राणा
Sunday, November 20, 2005
Wednesday, November 16, 2005
तुम्हारा कभी कोई नाम ना था
वे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैं
मुझे शिकायत नहीं वे व्यस्त
मेरे हर सवाल पर उनका हाल
कि वे व्यस्त हैं,
रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलता
पर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्र
मैं व्यस्त हूँ
मैं व्यस्त हूँ
सदा समय के साथ
सदा समय के साथ
पर कान वाले लोग बहरे हैं,
और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को .
और समय वही दोपहर के 11.22
कहीं शाम हो चुकी होगी
कहीं अभी होती होगी सुबह नयी
कहीं आने वाली होगी रात पुरानी
क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभी
पूछता उससे
जैसे कुछ याद आ जाए उसे,
लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती,
कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी को
जो अब याद नहीं
कि भूलना कठिन है तुम्हें
16.11.05 © मोहन राणा
Monday, November 14, 2005
सर्दियाँ
शाम को अचानक आकाश लाल हो उठा उस लालिमा में फंसा पिघलता हुआ चाँद पूर्व दिशा में दिखने लगा. बस जैसे ऐसे ही किसी मौके की प्रतीक्षा में छुपा था वह - अँधकार.
अँधेरा छायाओं से मुक्त हो बड़ी तेजी फैलने लगा, सारा दिन अपने आपको पेड़ों से छुड़ाते कोहरे को भागने का मौका ही नहीं मिला कि अँधरे ने उसका हाथ थाम लिया
ठंड से अकड़ा कोहरा लेता ठिठुरती सांस.
Monday, November 07, 2005
माया
और एक दिन उनकी सफेदी ही बचती है
जगमगाता है बरामदा शून्यता से
फिर मैं उन्हें भीतर ले आता हूँ
वे गिरे हुए छिटके हुए कतरे जीवन के
उन्हे चुन जोड़ बनाता कोई अनुभव
जिसका कोई अर्थ नहीं बनता,
बिना कोई कारण पतझर उनमें प्रकट होता
बाग की सीमाओं से टकराता
कोई बरसता बादल,
दो किनारों को रोकता कोई पुल उसमें
आता जैसे कुछ कहने,
अक्सर इस रास्ते पर कम ही लोग दिखते हैं
यह किसी नक्शे में नहीं है
कहीं जाने के लिए नहीं यह रास्ता,
बस जैसे चलते चलते कुछ उठा कर साथ लेते ही
बन पड़ती कोई दिशा,
जैसे गिरे हुए पत्ते को उठा कर
कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं
7.11.05 ©मोहन राणा / Photo by Drakpa
Thursday, November 03, 2005
Wednesday, November 02, 2005
विलाप
विलाप
वह किसी का हाथ
रूमाल में लिपटा,
वह खोया हुआ हाथ
उस हाथ ने कभी छुआ अपने जन्म को
और जाना अपने होने को,
उसने छुआ रोटी के टुकड़े को
प्रेम के स्पर्श को
और लिखा कुछ,
एक गर्म दिन
उसने टटोला हवा की उपस्थिति को,
बरसते हुए मानूसन को समेटा अंजलि भर
बादलों की गर्जना में हल्की सी सीत्कार समुंदर की,
उस हाथ ने कभी संभाला गिरते हुए को
खोजा खोए हुए को
टटोला अँधेरे में बत्ती को,
हाथ पकड़ा किसी का सड़क पार करते ।
मैंने तस्वीर में देखा
एक हाथ उठाए है रूमाल में लिपटे एक विक्षत हाथ को
जिसका नहीं कोई चेहरा
नहीं पहचान
कोई नाम,
आतंक से उपजे शोक में
कोई विलाप नहीं
शब्दों में मृतकों के लिए
© मोहन राणा 2.11.05
What I Was Not
Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...
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Ret Ka Pul | Revised Second Edition | रेत का पुल संशोधित दूसरा संस्करण © 2022 Paperback Publisher ...
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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन