अपने ही विचारों में उलझता
यहाँ वहाँ
क्या तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ कभी,
जो अब याद नहीं
बात किसी अच्छे मूड से हुई थी
कि लगा कोई पंक्ति पूरी होगी
पर्ची के पीछे
उस पल सांस ताजी लगी
और दुनिया नयी,
यह सोचा
और साथ हो गई कुछ पाने की चिंता
मैं धकेलता रहा वह और पास आती गई,
अच्छा विचार मुझे अपने आप से भी नहीं बचा सकता,
उसे खोना चाहता हूँ
नहीं जीना चाहता किसी और का अधूरा सपना
30.8.06 © मोहन राणा
1 comment:
भला हो लाल्टू का आपका पता बता दिया कविताओं पर टिप्पणी की कूवत तो अभी जुटा ही रहा हूँ वह बाद में करुँगा। अभी तो इतने संवेदनक्षम ब्लॉग के लिए बधाई स्वीकार करें।
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