कल कई मूड एक साथ चल रहे थे और बाहर बारिश, कागजों में कुछ खोजते बीनते एक अप्रकाशित कविता मिल गई और सारा कोलाहल गायब हो गया
कला दीर्घा की छत और तीसरा आदमी
थोड़ी ठंड है यहाँ जनवरी का महीना पर शांत है यह जगह
आओ अंधेरे आकाश को पंखी की तरह ओढ़ लें
कोहरे के सहारे हम चल पड़ें
कुछ देर दो बात ही कर लें समय के तंग रास्ते पर,
बिल्कुल उधर कोने में बांस की परछत्ती सी है मेरी
कुटिया घर की छत पर, उसने अचरज की सांस सी
अनायास दिख जाती हैं ऐसे ही मिलती जुलती चीजें और लोग कभी
सब कुछ मिलता जुलता ही होता है - थोड़ा हेर फेर होता होता है देखने में,
पर हमने कहा नहीं कुछ बना सुने कुछ
कोई तीसरा जो उपस्थित नहीं था कहता रहा अपने जीवन की -
घर के ऊपर घर से अलग वही एक जगह
घर से जुड़ी - मैं लिख रहा हूँ किताब वहाँ, उसने कहा
दिन भर मैं खोजता बीनता उन्हें - उन परित्यक्त शब्दों को जीवन में,
परछत्ती पर जमा होते
मैं रहता हूँ परित्यक्त शब्दों में - परित्यक्त शब्द
बिना तारों का आकाश उनमें, कई मौसम, वे मेरी और तुम्हारी तरह हैं
उनका न पता -ठिकाना, उनकी क्या उर्म है, उनका बस पहचान है , वे इश्तहार में - खोए
चेहरे से हैं.
कभी लगता है जैसे मेरी देह
हवा से भरी हो - वायुमंडल
और मैं दोनों हाथों से बादलों को उसमें ठूंसता हूँ
जैसे तकिये में रूई को...
जैसे कोई सपना हो यह तीसरा आदमी
याद नहीं आती जिसकी कोई पहचान,
मैं एक बूढ़े आदमी को सुन रहा हूँ
कला दीर्घा की छत पर
सीले हुए अँधरे में
केवल देख रहा हूँ अपने को थोड़ी देर पहले.
29.1.97
© मोहन राणा
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1 comment:
(यह टिप्पणी 'क्या होता' के लिए हैं, वहाँ पर कर नहीं पा रहे थे इसलिए यहाँ की हैं, कृपया इसे मूल प्रविष्टी पर रख दे.)
कविता की यह पंक्तियाँ खाश पसन्द आई
मैंने पानी से लिखा उन्हें
वे बादलों में बदल गए
इसी पर लिखना चाहुंगा
मैंने पानी से लिखा उन्हें
वे बादलों में बदल गए
बरसा फिर पानी
लगा पुनर्जिवीत हुआ हूँ.
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