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दिन रोज आते हैं पर कभी कोई दिन अच्छा निकल आता है, उसे उठाता हूँ कि देखूँ जरा गौर से कि वह फिर समय की नदी में बह जाता है..
एक कविता ("इतना कुछ एक साथ " कविता संग्रह से )
धोबी
चमकती हुई धूप सुबह की
चीरती घने बादलों को चुपचाप
देखते भूल गया मैं आकाश को
दुखते हुए हाथों को,
पानी में डबडबाते प्रतिबिम्ब की सलवटें देखते
मैं भूल गया
अपनी उर्म को,
झूमती हुई हरियाली में लहुलुहान छायाओं को देखते
भूल गया मृतकों के वर्तमान को
जो सोचा करने लगा कुछ और,
घोलता नीले आकाश में बादलों के झाबे को
मैं धो रहा हूँ अपने को
1.5.2003
© मोहन राणा