इंगलैंड के समय के अनुसार दोपहर बाद करीब तीन बजे न्यूयार्क से आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के उदघाटन को राष्ट्रसंघ की वेबसाइट पर देखा, पंद्रह बीस मिनट तक देखता रहा, सभा का आरंभ राष्ट्रगीत के गान से हुआ, फिर अमेरिका में भारत के राजदूत श्री रणेन्द्र सेन का स्वागत भाषण .. उसके बाद अन्य गण मान्य बोलते रहे ....पूरा कार्यक्रम नहीं देखा शायद सब ठीक ही रहा होगा.. शाम को बीबीसी पत्रिका की वेबसाइट पर बीबीसी हिन्दी के विवाद(राय) मंच में मंगलेश डबराल http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/07/070711_maglesh_sammelan.shtml और सुधीश पचौरी http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/07/070711_hindi_sammelan.shtml के सम्मेलन के पक्ष -विपक्ष में तर्क पढ़े इन दो टिप्पणियों पर पाठकों की प्रतिक्रिया भी विविध और पैनी है ...धीरेष सेनी कहते हैं ..." जो लोग नहीं गए वे वीजा की दिक्कतों की वजह से नहीं गए. फिर सार्थकता का रोना रो दिया. वे तो देश में खुद पुरस्कारों और पदों की राजनीति करते रहे. हाँ, ये सच कि इन सम्मेलनों का कोई मतलब नहीं होता. मेरा कहना है कि लातिन अमरीकी लेखकों से सीख लें और बाहरी प्रमाण के बजाय सही सवालों को ईमानदारी और साहस से उठाएँ, बस।"
वैसे मुझे याद है जो लोग न्यूयार्क नहीं गए हैं इस बार, उनमें से कुछ लंदन तो गए थे छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में.. अमेरिका का वीज़ा सहजता मिलना आम जन के लिए सहज नहीं है उसकी एक जटिल प्रक्रिया है, पिछले साल वैज्ञानिक गोवर्धन मेहता तक को उन्होंने वीज़ा नहीं दिया,
यह सही है कि न्यूयॉर्क में हिन्दी जाति की समस्याओँ और साहित्य के जो संकट हैं उन्हें कोई भी संबोधित करेगा ऐसी संभावना कम ही लगती है, तथापि किसी तरह का विवाद खड़ा करने का प्रयास को कोई करेगा ऐसा संभव लगता है. सच यह है कि जब भारत में ही कोई उन संकटों को संबोधित नहीं कर रहा है और सभी बंदर बाँट और गुटबाजी और आपसी चापलूसी में लगे है और बड़े बड़े साहित्यकार ,मंगलेश जी के अनुसार हिन्दी में 20 ऐसे योग्य साहित्यकार हैं, जो नोबल पुरस्कार के योग्य हैं ! वे तक प्रकाशक के सामने दुम दबाये रहते हैं पर मंचों पर बड़ी बातें करते हैं, तो ऐसी स्थिति में इस तरह का विरोध तर्क कि यह न्यूयॉर्क में क्यों हो रहा है या इसकी सार्थकता क्या, खोखला और लिजलिजा लगता है और बस राजनैतिक तीरंदाजी है, और हिन्दी और भारत का दुर्भाग्य कहें इस तरह के तीर आत्मघाती ही सिद्ध हुए हैं.
राष्ट्रसंघ में यह कार्यक्रम करने का कारण कूटनीतिक है संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि श्री निरूपम सेन के भाषण को सुनकर ऐसा मुझे प्रतीत हुआ, हालाँकि जो विश्व स्थिति अभी बनी हुई है उसे देखते हुए उस कूटनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने में समय लगेगा. पर सब कुछ भारतीय नेतृत्व की क्षमता, धैर्य और ज्ञान पर निर्भर करता है. और भारतीय पक्ष की कमजोरियों से विरोधी पक्ष अच्छी तरह से अवगत है...
एक सवाल मन में आया, भारत में जो हिन्दी (साहित्य) है उस पर इस समय किसका वर्चस्व है? अगर भारतीय समाज के उस धड़े को हिन्दी का अंर्तराष्ट्रीय नेतृत्व मिल जाय तो क्या हिन्दी सच्चे अर्थों में आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हो जाएगी?( अगर वह अभी सच्चे अर्थों में आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नहीं है तो) ....
बस अंत में अटकलें ही साथ रह जाती है ....
Saturday, July 14, 2007
The Translator : Nothing is Translated in Love and War
8 Apr 2025 Arup K. Chatterjee Nothing is Translated in Love and War Translation of Mohan Rana’s poem, Prem Au...

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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन
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