Sunday, December 07, 2008

शोकगीत

















दम साधे सावधान
कि सांस बेचैन है फेफड़ों में,
आतंक के गलियारों में विलुप्त हैं शोकगीत इस बार,
चुप क्यों हैं शोकगीतों के कवि

उनका दुख आक्रोश बेचारगी
अपनी अनुपस्थिति का कोई कारण बूझते
कहाँ हैं वे कवि?

अकेले नहीं पूरी हो सकती यह कविता
चीखों के बियाबान में,

सबसे पहले भूल जाते हैं
आइने के सामने हम अपने को ही



©मोहन राणा

The Translator : Nothing is Translated in Love and War

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