Monday, December 14, 2009

गोपन कथा

हमारी जिंदगी ऐसी गोपन कथा सी है हमें सब मालूम
फिर भी खोजते रहते हैं हम संकेतों को उस जिंदगी को जीते हुए
उसे पहेली मान लगे रहते हैं बूझते
पेड़ों से अदृश्य जंगलों में लुढ़कती हुई नींद की ढलानों पर
संभालते अपने आपको
बटोरते अपनी नग्नता को पतझर के बियाबान में
उकेरते अपनी जिंदगी की त्वचा पर संकेत
ये जानकर कि इस गोपन कथा में विस्मृति अपरिहार्य स्थिति है
कि शायद उसके बाद कुछ बची रहे चेतन स्मृति
कि बूझ सकें उन संकेतों को जो हमने लिखे थे भविष्य के लिए,
जिन्हें पढ़ रहें हैं हम आज, उस नन्ही लौ के सहारे समय के अंधकार में

© मोहन राणा