पनवाड़ी प्रकाशक हो गए परांठे वाली गली में
कवि के पान पर चूना लगाकर,
अलखनिरंजन
कह के कूदी अभिशप्त बरगद से एक छाया
मेरी जुबान बंद है
मेरे इन्कार में उपस्थित है उसका चेहरा,
रजाईयों में दुबकी अभिजात्य आत्माओँ ने
बंद कर ली अपनी आँखें अँधेरे से डर कर.
©मोहन राणा 10.2.10