Tuesday, August 23, 2011

आत्मक्लेष

है एक उड़ान इस आहवान में,
सबके साथ नहीं होता यह
जो खुली रह जाएं आखें झुकी पलकों में,
इस तेज आंधी में नहीं दिखता
शब्दों की ढलानों पर
असभ्य हुक्मशाहों के विरूद्द कोई बोलता
न किसी के जलसे में ना किसी परचम नीचे
ना पंडाल में ना किसी सेमिनार ना किसी फोरम पोस्ट में,
मोहल्ले में चुप्पी कविता के जनपद में कवियों की अनुपस्थिति
कुछ दिन ही हुए हैं बार बार लौटते इस ख्याल में
पर ऐसे ही बीत गए हैं चौंसठ बरस जुड़ते जुड़ते
कोई फुसफुसाता है धीमे से, सच भी दगाबाज निकल आता है कभी.
सपने खुद ही लेते हैं सांस
इस बरगद की छांव में

©

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...