Saturday, October 29, 2011
शरद Autumn
टूटता है समय अपनी सूख गई स्नायुओं से
blown away with gusts of autumn, clinging to the edges, surfaces and sides of walls, roads, fences and bare branches and this moment
Thursday, October 27, 2011
विशेषण
स्फिति की चिंता में उसे रोकने के लिए और बढ़ाया जाता है
मुद्रा बाजार में पूँजी को और शब्दों के व्यापार में
अँधेरे में छतरी खोल भाषा के छिलकों को,
यह फैलता हुआ विस्तार बढ़ा रहा है खालीपन को
सिमटता बाकी जो छूट जाता पीछे, समेट लिया जाता ऊँचे फुटपाथों में
पुराना घर कोई दोगला कस्बा भूगोल बदलता जिला पाट बदलता गाँव,
टूटी ही नदी किनारे
हरा होने की कोशिश करता प्रदूषित होता हुआ महानगर,
किसी भीड़ में कुछ पहचाने पहचान दर्ज करने
फिसलते अपने अकेलेपन के वलय में खत्म होती दूरियों में
एक दोपहर एक शाम किसी सुबह की स्मृति में
अपने नाम के साथ कोष्ठक में बंद एक विशेषण,
कहते नहीं सुना सूरज को कहाँ तक पहुँचती है उसकी रोशनी
अगर धरती न समटेती उसकी किरणें
देख पाता क्या मैं उसे, कभी नीले आकाश में
©
मुद्रा बाजार में पूँजी को और शब्दों के व्यापार में
अँधेरे में छतरी खोल भाषा के छिलकों को,
यह फैलता हुआ विस्तार बढ़ा रहा है खालीपन को
सिमटता बाकी जो छूट जाता पीछे, समेट लिया जाता ऊँचे फुटपाथों में
पुराना घर कोई दोगला कस्बा भूगोल बदलता जिला पाट बदलता गाँव,
टूटी ही नदी किनारे
हरा होने की कोशिश करता प्रदूषित होता हुआ महानगर,
किसी भीड़ में कुछ पहचाने पहचान दर्ज करने
फिसलते अपने अकेलेपन के वलय में खत्म होती दूरियों में
एक दोपहर एक शाम किसी सुबह की स्मृति में
अपने नाम के साथ कोष्ठक में बंद एक विशेषण,
कहते नहीं सुना सूरज को कहाँ तक पहुँचती है उसकी रोशनी
अगर धरती न समटेती उसकी किरणें
देख पाता क्या मैं उसे, कभी नीले आकाश में
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Thursday, October 20, 2011
प्रवासी
एक महाद्वीप से दूसरे तक ले जाते अपनी भाषा
ले जाते आम और पीपल का गीत
ले जाते कोई ग्रीष्म कोई दोपहर
पूस का पाला अपने साथ
ले जाते एक गठरी साथ,
बाँध लेते अजवाइन का परांठा भी यात्रा के लिए
4.6.2003
ले जाते आम और पीपल का गीत
ले जाते कोई ग्रीष्म कोई दोपहर
पूस का पाला अपने साथ
ले जाते एक गठरी साथ,
बाँध लेते अजवाइन का परांठा भी यात्रा के लिए
4.6.2003
Monday, October 10, 2011
इसमें झिझक कैसी
वक्त ही ऐसा कि हवा भटकती है
सांय सांय सिर फोड़ती खिड़की दरवाजों पर,
इस कोलहाल के वीराने मुझे अपनी सांस से भी लगता है डर
मैं उसे आशा की तरह साधे रहता हूँ अपनी मुस्कान में.
सांय सांय सिर फोड़ती खिड़की दरवाजों पर,
इस कोलहाल के वीराने मुझे अपनी सांस से भी लगता है डर
मैं उसे आशा की तरह साधे रहता हूँ अपनी मुस्कान में.
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