वक्त ही ऐसा कि हवा भटकती है
सांय सांय सिर फोड़ती खिड़की दरवाजों पर,
इस कोलहाल के वीराने मुझे अपनी सांस से भी लगता है डर
मैं उसे आशा की तरह साधे रहता हूँ अपनी मुस्कान में.
Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays "Liv...
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