स्फिति की चिंता में उसे रोकने के लिए और बढ़ाया जाता है
मुद्रा बाजार में पूँजी को और शब्दों के व्यापार में
अँधेरे में छतरी खोल भाषा के छिलकों को,
यह फैलता हुआ विस्तार बढ़ा रहा है खालीपन को
सिमटता बाकी जो छूट जाता पीछे, समेट लिया जाता ऊँचे फुटपाथों में
पुराना घर कोई दोगला कस्बा भूगोल बदलता जिला पाट बदलता गाँव,
टूटी ही नदी किनारे
हरा होने की कोशिश करता प्रदूषित होता हुआ महानगर,
किसी भीड़ में कुछ पहचाने पहचान दर्ज करने
फिसलते अपने अकेलेपन के वलय में खत्म होती दूरियों में
एक दोपहर एक शाम किसी सुबह की स्मृति में
अपने नाम के साथ कोष्ठक में बंद एक विशेषण,
कहते नहीं सुना सूरज को कहाँ तक पहुँचती है उसकी रोशनी
अगर धरती न समटेती उसकी किरणें
देख पाता क्या मैं उसे, कभी नीले आकाश में
©