इतने महीन दिन महीन बातों में
कि सच भी पारदर्शी हो गया,
झूठ पर अब शक नहीं होता
सुबह आइना देखते ही दुनिया से शाया करते हुए,
अब संतोष होता है।
समय कम है लोग कम हैं पर कहानियाँ कई
सुनकर अधसुनी लिख अधूरी कि घट चुके भविष्य को आँखें नहीं देख पातीं हाशियों में पढ़ते,
जो सुनाकर भी नहीं होती पूरी
उनके और मेरे दिनों का याद किया जमा जोड़ में भी
जो ख़ुद ब ख़ुद घटता रहता है रेत के पहाड़ में अपने कदमों को रोंदते,
सड़क का दूसरा किनारा रह जाता है जीवन में उस पार ही।
© मोहन राणा
14.12.2015