मेरे पीछे लगा समय
दिखता दूर कि लगता धीमा पड़ रहा है
पर नज़दीक भाग रहा है घड़ी के डायल में
और मेरे दिन की छायाएँ छुप रही हैं
जिनमें मैं फिसलता अपनी
इच्छाओं से बोझिल
दिखता दूर कि लगता धीमा पड़ रहा है
पर नज़दीक भाग रहा है घड़ी के डायल में
और मेरे दिन की छायाएँ छुप रही हैं
जिनमें मैं फिसलता अपनी
इच्छाओं से बोझिल
मैं लिखता अपनी
सुनता अपनी
सुनता अपनी
जहाँ औरों के आकाश हैं और पराये स्वदेश
ख़ुद ही बिसरी स्मृतियों के इन सीमान्तों पर
ख़ुद ही बिसरी स्मृतियों के इन सीमान्तों पर
इतना उजला है आईना यहाँ
कि चटख दोपहर अदृश्य है
कि चटख दोपहर अदृश्य है
नहीं पहचान पाता मैं प्रतिबिम्ब अपने हाथों में
दम साधे एक अँधेरे को खुली आँखों में छुपाये
दम साधे एक अँधेरे को खुली आँखों में छुपाये
- मोहन राणा
© 2017
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