Sunday, October 22, 2017

मिट्टी का पुतला

मेरे पीछे लगा समय
दिखता दूर कि लगता धीमा पड़ रहा है
पर नज़दीक भाग रहा है  घड़ी के डायल में
और मेरे दिन की छायाएँ छुप रही हैं
जिनमें  मैं फिसलता अपनी
इच्छाओं से बोझिल
मैं लिखता अपनी
सुनता अपनी 
जहाँ औरों के आकाश हैं और पराये स्वदेश
ख़ुद ही बिसरी स्मृतियों के  इन सीमान्तों पर
इतना उजला है आईना यहाँ
कि चटख दोपहर अदृश्य है
नहीं पहचान पाता मैं प्रतिबिम्ब अपने हाथों में
दम साधे एक अँधेरे को खुली आँखों में  छुपाये
- मोहन राणा
© 2017

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