Thursday, October 15, 2009

याद करते तुम्हें


कितने दिन बाद मिले

यही याद है

बीते कितने दिन इस बीच


बेलें फैली सूखी दीवारों पर

बारिश में बह गईँ

छोड़ कर निशान

तस्वीरें भी पुरानी हो गईं

एकतरफा पहचानते पहचानते

पर सपनों में तुम हमेशा मिली
बीते वहाँ कई दिन

रोशनी और अँधेरा

खुशी की सलवटें


तुम्हारी आवाज वही है

पुकारो तो जरा मेरा नाम

मैं मुड़ कर पहचानना चाहता हूँ

एक अजनबी को बाजार में,

झिझकर माफी माँगता हूँ फिर से


बीते कितने दिन अटैची की तहों में

अतीत को देखूँ तो लगता

अभी तो पहला ही दिन शुरू हुआ

बीतते भविष्य के विस्तार में

हाथों में उछालते कैच करते

गेंद को फेंक देता हूँ उसके भीतर,


याद करते तुम्हें

मैं एक खोई गेंद को खोज रहा हूँ इस ऊँची घास के मैदान में.



कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है / The poem Chooses Its Own Birth

Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays  "Liv...