एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ खोए बच्चों के नाम
शहतूत की टहनियों से टँगे
छोटे होते जाते हैं उनके कपड़े
फैलती हैं टहनियाँ
घना होता जाता है शहतूत
और सालों में कभी एक बार मैं बूढ़े पेड़ को देखता हूँ
अपनी छाया पर झुके हुए,
तार-तार होते जाते हैं कपड़े
उनकी स्मृतियाँ हवा में मिलती हैं पानी
में घुलती हैं मौसमों में डूबती हैं
महीन होती जाती भूली हुई कविता सी,
मैं लिखना चाहता हूँ अपने बारे में पर
किसी और की कहने लगता हूँ
समकालीन पुराने हो जाते हैं,
एक दिन वे खो जाएँगे
खोए हुए बच्चों की तरह एक दिन
एक दिन खो जाएगा – कई दिनों में कहीं,
एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ
खोए हुए बच्चों के नाम
खोए हुए बचपन की ओर से
18.8.1995
(सुबह की डाक / कविता संग्रह से)
Tuesday, January 26, 2010
Monday, January 25, 2010
सैमसंग द्वारा प्रायोजित
यह कविता ना समझ सकती
ना लिख सकती
ना पढ़ सकती
भाषा सीख के भी
ना जान सकती
फिर
इस बंदर बाँट में
नई बिल्ली से डर किसको है
राष्ट्रीय हो अंर्तराष्ट्रीय हो बहुराष्ट्रीय हो
बहुलोकी हो
यह बहुरूपिया !
डर किसको है इस बिल्ली से
कौने बाँधे घंटी इसको,
अगल बगल
हम निकल भागते , साथ साथ
यह हिम्मत कैसी
छुपा कर मुँह रजाई में,
पहले हम उतारें घंटियाँ अपनी
बाँधे तब तो ना कोई अजातशत्रु इस बिल्ली को,
लंबी हैं ये घनघोर सर्दियाँ कोहरे की
हो गए हम अभिशप्त जीते जी
© मोहन राणा
ना लिख सकती
ना पढ़ सकती
भाषा सीख के भी
ना जान सकती
फिर
इस बंदर बाँट में
नई बिल्ली से डर किसको है
राष्ट्रीय हो अंर्तराष्ट्रीय हो बहुराष्ट्रीय हो
बहुलोकी हो
यह बहुरूपिया !
डर किसको है इस बिल्ली से
कौने बाँधे घंटी इसको,
अगल बगल
हम निकल भागते , साथ साथ
यह हिम्मत कैसी
छुपा कर मुँह रजाई में,
पहले हम उतारें घंटियाँ अपनी
बाँधे तब तो ना कोई अजातशत्रु इस बिल्ली को,
लंबी हैं ये घनघोर सर्दियाँ कोहरे की
हो गए हम अभिशप्त जीते जी
© मोहन राणा
Tuesday, January 19, 2010
बात कुछ ऐसी कि
ठीक करने में लगा हूँ दूरी मापक
काम नहीं करता,
कितनी दूर आ गया
चला गया
पिछली मुलाकात के बाद
याद नहीं यह भी
अब मैं पैदल ही नाप लेता हूँ
अनुपस्थित दूरियाँ
कहीं गए बिना
कहीं से लौटे बिना
बिता देता दोपहर
कल आज कल की
कुरसी पर बैठे खिड़की के नजदीक,
खुली हुई आँखों में भरता एक जगे हुए सपने को.
समेटता दूरियों को
दूर होकर उनसे
दूर ही होता जाता,
असीम विहंगम को बटोरने में लगा
क्या मैं बाँध सकता हूँ उसे एक पुड़िया में?
बात कुछ ऐसी कि
दैनंदिन घने जंगल में गुम धूप के कतरे को खोजता
मैं खुद ही गुम हूँ कहीं
जहाँ ना दूरी मापक काम करते हैं
ना ही दिशासूचक,
क्या मैं पकड़ सकता हूँ
तुम्हारा हाथ कि उठ जाऊँ उसके सहारे इस कुर्सी से
हम जाएँगे पैदल एक साथ कहीं
© मोहन राणा 19.1.2010
काम नहीं करता,
कितनी दूर आ गया
चला गया
पिछली मुलाकात के बाद
याद नहीं यह भी
अब मैं पैदल ही नाप लेता हूँ
अनुपस्थित दूरियाँ
कहीं गए बिना
कहीं से लौटे बिना
बिता देता दोपहर
कल आज कल की
कुरसी पर बैठे खिड़की के नजदीक,
खुली हुई आँखों में भरता एक जगे हुए सपने को.
समेटता दूरियों को
दूर होकर उनसे
दूर ही होता जाता,
असीम विहंगम को बटोरने में लगा
क्या मैं बाँध सकता हूँ उसे एक पुड़िया में?
बात कुछ ऐसी कि
दैनंदिन घने जंगल में गुम धूप के कतरे को खोजता
मैं खुद ही गुम हूँ कहीं
जहाँ ना दूरी मापक काम करते हैं
ना ही दिशासूचक,
क्या मैं पकड़ सकता हूँ
तुम्हारा हाथ कि उठ जाऊँ उसके सहारे इस कुर्सी से
हम जाएँगे पैदल एक साथ कहीं
© मोहन राणा 19.1.2010
Wednesday, January 06, 2010
और मैंने एक दिन में हाँ बोल के
....मैंने सिर्फ अपना रोल देखा :-SS
he is great fun he has great sense of humour ~X(
he is great fun he has great sense of humour ~X(
Friday, January 01, 2010
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