Tuesday, January 26, 2010

खोए बच्चों के नाम

एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ खोए बच्चों के नाम
शहतूत की टहनियों से टँगे
छोटे होते जाते हैं उनके कपड़े
फैलती हैं टहनियाँ
घना होता जाता है शहतूत
और सालों में कभी एक बार मैं बूढ़े पेड़ को देखता हूँ
अपनी छाया पर झुके हुए,
तार-तार होते जाते हैं कपड़े
उनकी स्मृतियाँ हवा में मिलती हैं पानी
में घुलती हैं मौसमों में डूबती हैं
महीन होती जाती भूली हुई कविता सी,

मैं लिखना चाहता हूँ अपने बारे में पर
किसी और की कहने लगता हूँ
समकालीन पुराने हो जाते हैं,
एक दिन वे खो जाएँगे
खोए हुए बच्चों की तरह एक दिन
एक दिन खो जाएगा – कई दिनों में कहीं,

एक चिठ्ठी मैं लिखना चाहता हूँ
खोए हुए बच्चों के नाम
खोए हुए बचपन की ओर से

18.8.1995

(सुबह की डाक / कविता संग्रह से)

Monday, January 25, 2010

सैमसंग द्वारा प्रायोजित

यह कविता ना समझ सकती
ना लिख सकती
ना पढ़ सकती
भाषा सीख के भी
ना जान सकती

फिर

इस बंदर बाँट में
नई बिल्ली से डर किसको है
राष्ट्रीय हो अंर्तराष्ट्रीय हो बहुराष्ट्रीय हो
बहुलोकी हो
यह बहुरूपिया !

डर किसको है इस बिल्ली से
कौने बाँधे घंटी इसको,
अगल बगल
हम निकल भागते , साथ साथ
यह हिम्मत कैसी
छुपा कर मुँह रजाई में,

पहले हम उतारें घंटियाँ अपनी
बाँधे तब तो ना कोई अजातशत्रु इस बिल्ली को,
लंबी हैं ये घनघोर सर्दियाँ कोहरे की
हो गए हम अभिशप्त जीते जी


© मोहन राणा

Tuesday, January 19, 2010

बात कुछ ऐसी कि

ठीक करने में लगा हूँ दूरी मापक
काम नहीं करता,
कितनी दूर आ गया
चला गया
पिछली मुलाकात के बाद
याद नहीं यह भी

अब मैं पैदल ही नाप लेता हूँ
अनुपस्थित दूरियाँ
कहीं गए बिना
कहीं से लौटे बिना
बिता देता दोपहर
कल आज कल की
कुरसी पर बैठे खिड़की के नजदीक,
खुली हुई आँखों में भरता एक जगे हुए सपने को.

समेटता दूरियों को
दूर होकर उनसे
दूर ही होता जाता,
असीम विहंगम को बटोरने में लगा
क्या मैं बाँध सकता हूँ उसे एक पुड़िया में?
बात कुछ ऐसी कि
दैनंदिन घने जंगल में गुम धूप के कतरे को खोजता
मैं खुद ही गुम हूँ कहीं
जहाँ ना दूरी मापक काम करते हैं
ना ही दिशासूचक,

क्या मैं पकड़ सकता हूँ
तुम्हारा हाथ कि उठ जाऊँ उसके सहारे इस कुर्सी से
हम जाएँगे पैदल एक साथ कहीं


© मोहन राणा 19.1.2010

Wednesday, January 06, 2010

बरफ गिरती रही रातभर


कुछ देर मैं खुश होता हूँ आँखें मूँदे बर्फीले सन्नाटे में
सुनता जैसे कुछ भी नहीं सुनकर

और मैंने एक दिन में हाँ बोल के

....मैंने सिर्फ अपना रोल देखा :-SS




he is great fun he has great sense of humour ~X(

Friday, January 01, 2010

नववर्ष 2010





नववर्ष 2010 की हार्दिक शुभकामनाएँ

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...