Monday, January 25, 2010

सैमसंग द्वारा प्रायोजित

यह कविता ना समझ सकती
ना लिख सकती
ना पढ़ सकती
भाषा सीख के भी
ना जान सकती

फिर

इस बंदर बाँट में
नई बिल्ली से डर किसको है
राष्ट्रीय हो अंर्तराष्ट्रीय हो बहुराष्ट्रीय हो
बहुलोकी हो
यह बहुरूपिया !

डर किसको है इस बिल्ली से
कौने बाँधे घंटी इसको,
अगल बगल
हम निकल भागते , साथ साथ
यह हिम्मत कैसी
छुपा कर मुँह रजाई में,

पहले हम उतारें घंटियाँ अपनी
बाँधे तब तो ना कोई अजातशत्रु इस बिल्ली को,
लंबी हैं ये घनघोर सर्दियाँ कोहरे की
हो गए हम अभिशप्त जीते जी


© मोहन राणा

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...