ठीक करने में लगा हूँ दूरी मापक
काम नहीं करता,
कितनी दूर आ गया
चला गया
पिछली मुलाकात के बाद
याद नहीं यह भी
अब मैं पैदल ही नाप लेता हूँ
अनुपस्थित दूरियाँ
कहीं गए बिना
कहीं से लौटे बिना
बिता देता दोपहर
कल आज कल की
कुरसी पर बैठे खिड़की के नजदीक,
खुली हुई आँखों में भरता एक जगे हुए सपने को.
समेटता दूरियों को
दूर होकर उनसे
दूर ही होता जाता,
असीम विहंगम को बटोरने में लगा
क्या मैं बाँध सकता हूँ उसे एक पुड़िया में?
बात कुछ ऐसी कि
दैनंदिन घने जंगल में गुम धूप के कतरे को खोजता
मैं खुद ही गुम हूँ कहीं
जहाँ ना दूरी मापक काम करते हैं
ना ही दिशासूचक,
क्या मैं पकड़ सकता हूँ
तुम्हारा हाथ कि उठ जाऊँ उसके सहारे इस कुर्सी से
हम जाएँगे पैदल एक साथ कहीं
© मोहन राणा 19.1.2010
Tuesday, January 19, 2010
The Translator : Nothing is Translated in Love and War
8 Apr 2025 Arup K. Chatterjee Nothing is Translated in Love and War Translation of Mohan Rana’s poem, Prem Au...

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चुनी हुई कविताओं का चयन यह संग्रह - मुखौटे में दो चेहरे मोहन राणा © (2022) प्रकाशक - नयन पब्लिकेशन
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