Saturday, December 02, 2017

भरोसा































भरोसा


दिनभर बोलता जिद्दी रुरुआ नींद में भी जगा
सांस की जगह ले चुका मन की बातों में
अब मैं बिना फूँक के भी बजता बाजा हूँ
अपने ही शोर में बहरे कानों के भीतर

मैं बताऊँगा उन्हें सपने देखता
मैं उन जैसा नहीं अकेला
पर अलग
रचता उन जैसा ही सहेजता
छुअन भर एक भरोसा

यही पल हमेशा आख़िरी
और इससे पहले ना जिया कभी
जितना मैं पास उतना ही दूर
कोलाहल में उस अकारथ देह रेखा से,
गुमसी मेट्रो में एक हाथ से थामे अपनी स्पर्श निजता
अपने जीवन से असहमत कितनी बार और हर बार भूल जाता
भाग कर याद दिलाते जियी हुई सीख अपने अकेलेपन को
ऐसे ही पल जब मैं पहचानता हूँ
फिर लौटते अपनी इच्छाओं के व्योम
हो जाए पार चौखट पल्ली पार
मन जाने कहाँ लग जाता है यही सोचकर

अतीत पर चलना होता है आसान
मनचाही खुशी और दुख को उसमें भरना,
धीमी आवाज़ में अधूरी कहानियों का निरंतर पाठ है उसका तहखाना
जहाँ रात का पेड़ हरा भरा जिस पर सोई हैं स्मृतियाँ,
जब कभी अँधेरे में भी पहचान लेंगे एक दूसरे को वहाँ
बढ़ाते हाथ गिरते कंधों को थामने,
हर रोज़ मान कर चल पड़ते
आँख खुलने को अपने जीवित होने का प्रमाण,
अपनी सुनाने की बारी आने का
है ना हमें भरोसा 


2009



शेष अनेक ( 2016)  © मोहन राणा


© Mohan Rana
Published by Copper Coin, India. 2016 

https://www.wordsandworldsmagazine.com/archive-1/fall-issue-2016-herbst-ausgabe-2016/mohan-rana/


कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है / The poem Chooses Its Own Birth

Year ago I wrote an essay 'कविता अपना जनम ख़ुद तय करती है ' (The poem Chooses Its Own Birth) for an anthology of essays  "Liv...