दूर खिड़की पास दिल्ली
भाग रहा हूँ पर दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं
6900 किलोमीटर दूर ही रह गई
भाग रहा हूँ नज़दीक जाने कहीं
दूर खिड़की पास दिल्ली
पर गंतव्य छूट रहा पीछे कहीं
जो कल सोचा वह आज नहीं
लपेटता जैसे किसी और तह में ख़ुद को
तस्मों को ढीला करता नंगे पाँव दौड़ते
[29.11.2008]
- मोहन राणा
(रेत का पुल /कविता संग्रह : 2012)
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