Sunday, January 15, 2006

फिर वही


दिसंबर की गुनगुनी धूप, राई के पत्तों पर बिखरी फीकी होती बीतती दोपहर कि ढलता दिन थक सा गया अपने को दुहराते जैसे साल भर, सरसों के रंग पर मुग्ध या मुध पान में र्निलिप्त तितली.

25.12.05 लोनी गाजियाबाद

1 comment:

Bhawna said...

Very Nice Poem.

What I Was Not

 Mohan Rana's poems weave a rich tapestry of memory and nostalgia, a journeying through present living. Explore the lyrical beauty of th...